________________ 305 कल्पनीय-आचरणीय **************************************************************** धूम-दोष - स्वाद-रहित आहार को खेदपूर्वक तथा दाता की निन्दा करते हुए खाना। मूल में इन तीन दोषों का उल्लेख है। उपलक्षण से यहाँ - प्रमाण से अधिक खाने और अकारण खाने के दो दोष और मिलाकर परिभोगैषणा के पांच दोष भी टालने चाहिए। छह स्थान निमित्त - आहार करने के छह कारण ठाणांग 6 और उत्तराध्ययन अ० 26 में इस प्रकार बताये हैं - 1. क्षुधा-वेदनीय का शमन करने के लिए 2. वैयावृत्य करने के लिए 3. ईर्या-समिति का पालन करने के लिए 4. संयम-पालन करने के लिए 5. अपने प्राणों की रक्षा के लिए और 6. धर्म-चिंतन के लिए। जं वि य समणस्स सुविहियस्स उ रोगायंके बहुप्पकारंमि समुप्पण्णे वायाहिगपित्तसिंभअइरित्तकुविय-तहसण्णिवायजाए व उदय-पत्ते उज्जल-बल-विउलतिउल * कक्खडपगाढदुक्खे असुभकडुयफरुसे चंडफलविवागे महब्भये जीवियंतकरणे सव्वसरीरपरितावणकरे ण कप्पइ तारिसे वि तह अप्पणो परस्स वा ओसहभेसज्जं भत्तपाणं चतं पि सण्णिहिकयं * / शब्दार्थ - जं - जो, वि य - यदि, समणस्स सुविहियस्स - सुव्रतधारी श्रमण के, रोगायंके - रोग या आतंक, बहुप्पकारंमि - अनेक प्रकार के समुप्पण्णे - उत्पन्न हो जाये, वायाहिग - वात की अधिकता हो, पित्त-सिंभ-अइरित्तकुविय - पित्त और कफ अत्यन्त कुपित हो जायें, तह - तथा, सण्णिवायजाए - सन्निपात हो जाय, उदयपत्ते.- उदय प्राप्त, उज्जल-बल-विउल-तिउल-कक्खडपगाढ-दुक्खे - सुख से सर्वथा रहित और महान् वेग से विशेष प्रमाण में कठोर और मन वचन और काया के तीनों योग से पूर्ण प्रगाढ़ दुःख में, असुभकडुय-फरुसे - अशुभ और कटु-कठोर स्पर्शयुक्त, चंडफलविवागे - जिसका फलविपाक भयंकर है, महब्भये - महान् भयकारी, जीवियंतकरणे - . जीवन का अन्त करने वाला, सव्वसरीरपरितावणकरे - सारे शरीर में परितापना उत्पन्न करने वाला, ण कप्पई - नहीं कल्पता, तारिसे वि - ऐसे रोगातंक में भी, अप्पणो - अपने, परस्स वा - या दूसरे के लिए, ओसहभेसजं - औषध-भैषज्य, भत्तपाणं - आहार-पानी, तं पि सण्णिहिकयं - यह सब संग्रह करके रखना। भावार्थ - यदि इस उत्तम व्रत को धारण करने वाले सुश्रमण के शरीर में किसी एक प्रकार का या अनेक प्रकार के भयंकर रोग उत्पन्न हो जाये, वात, पित्त और कफ उग्ररूप से कुपित हो जाये और *'तिउल' शब्द न तो शास्त्रोद्धार समिति की प्रति में है, न ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में, किन्तु इसकी टीका में इस शब्द का अर्थ दिया है और पू० श्री हस्तीमल जी म. सा. सम्पादिक मूलपाठ में भी यह शब्द है। * बीकानेर वाली प्रति में यह पूरा पाठ ही नहीं है। कदाचित् भूल से छूट गया हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org