________________ 290 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ * और लोभ से विरत संयती, एक प्रकार के असंयम से रहित होता है। राग और द्वेष, ऐसे दो प्रकार के बन्ध, तीन प्रकार के दण्ड और तीन गौरव से रहित हो, तीन गुप्ति से गुप्त हो। तीन विराधना से बचा हुआ, चार कषाय को नष्ट करने वाला, चार ध्यान में से आर्त और रौद्र का वर्जक तथा धर्म और शुक्ल का सेवी, आहारादि चार संज्ञा, चार विकथा और पांच क्रिया से विरत, पांच समिति का पालक, पांच इन्द्रियों का शासक, पांच महाव्रतों का पालक, छह जीवनिकाय का रक्षक, छह लेश्यों में अशुभ लेश्याओं का त्यागी, सात भय और आठ मद से रहित, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य-गुप्ति और दस प्रकार के श्रमण-धर्म का पालक हो। उपासक की ग्यारह प्रतिज्ञा, भिक्षु की बारह प्रतिज्ञा, तेरह क्रिया-स्थान, चौदह भूतग्राम (जीव समुदाय), पन्द्रह परमाधार्मिक देव, सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन, सतरह असंयम, अठारह अब्रह्मचर्य, ज्ञातासूत्र के उन्नीस अध्ययन, बीस अंसमाधि स्थान। विवेचन - इस पांचवें संवरद्वार में सूत्रकार महर्षि ने बहुत ही गंभीर भावों का समावेश किया है। अपरिग्रह महाव्रत का द्रव्य और भाव से पालन करने वाले के सभी महाव्रत अपने आप पलते हैं। जो द्रव्य और भाव से अपरिग्रही है, वह स्त्री का परिग्रह नहीं रख सकता और वेदोदय के वशीभूत नहीं होता। इस प्रकार अपरिग्रही से ब्रह्मचर्य व्रत अपने-आप पलता रहता है। जो अपरिग्रही है, वह अदत्तग्रहण क्यों करेगा? अपरिग्रही के झूठ बोलने और हिंसा करने का प्रयोजन ही क्या रहता है ? क्रोधादि आभ्यन्तर कषायों के त्यागियों के मन में दुराशय या हिंसा-मृषादि का भाव ही नहीं आ पाएगा। इस प्रकार अपरिग्रही सर्वसंयत की आत्मा से सभी दुर्गुण दूर हो जाते हैं और सभी सद्गुण में निवास करने लगते हैं। अपरिग्रह महाव्रतधारी द्रव्य-भाव श्रमण की श्रद्धा, त्याग और चारित्र का स्वरूप . बताते हुए, एक से लगाकर तेतीस भेदों का उल्लेख किया गया है। यथा - 1. एक प्रकार का असंयम - वह अनियंत्रित अवस्था, जिसमें विरति का सर्वथा अभाव हो और मात्र असंयम ही हो। प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक के जीवों की असंयमी परिणति। भेद-विवक्षा से असंयम के सतरह प्रकार समवायांगसूत्र में बताये हैं। वे सभी भेद संग्रहनय से एक असंयम में समाविष्ट होते हैं। भेद स्वरूप का प्रतिपादन संयमी के हित के लिए होता है। असंयमी के लिए तो असंयम या अविरति ही पर्याप्त है। 2. बन्ध के दो भेद-राग और द्वेष। मोहनीय की 28 और सभी कर्मों की 148 या 158 प्रकृतियों के बन्धक, मुख्यतया ये दो भेद ही हैं। अठारह पापों का विस्तार भी इन दो भेदों से ही होता है। 3. दंड तीन - मन, वचन और काया के अशुभ योग से अपराध करके दण्ड का भागी बनना। . गारव तीन - ऋद्धि, रस और सुख का घमण्ड करना। ये सभी भेद हेय हैं, त्यागने योग्य हैं। तीन गुप्ति - मन, वचन और शरीर को पापमय प्रवृत्ति से रोक कर शुभ प्रवृत्ति में स्थित रखना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org