________________ 284. प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ **************************************************************** रूप आदि का मन से भी चिंतन नहीं करना चाहिए, न आँखों से देखना चाहिए और न वचन से रूप आदि का वर्णन करना चाहिए। इस प्रकार स्त्रियों के रूप-दर्शन त्याग रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। वह साधु मैथुन से निवृत्त एवं इन्द्रिय-लोलुपता से रहित होकर जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य-गुप्ति का धारक होता है। विवेचन - स्त्रियों के सौंदर्य का निरीक्षण वर्णन और चिंतन भी ब्रह्मचर्य का घातक होता है। रूप-निरीक्षण मानसिक विकास को बढ़ा कर ब्रह्मचर्य नष्ट कर देता है। अतएव रूप-दर्शन का त्याग अत्यावश्यक है। यह भावना मुख्यतः ब्रह्मचर्य की चौथी और गौणरूप से दूसरी और पांचवीं बाड़ का विधान करती है। चतुर्थ भावना-पूर्वभोग-चिंतन त्याग चउत्थं पुवरय-पुब्ब-कीलिय-पुव्व-संगंथगंथ-संथुया जे ये आवाह-विवाहचोल्लगेसु य तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य सिंगारागार-चारुवेसाहिं हावभावपललियविक्खेव-विलास-सालिणीहि अणुकूल-पेम्मिगाहिं सद्धिं अणुभूया सयणसंपओगा उउसुहवरकुसुम-सुरभि-चंदण-सुगंधिवर वास-धूव-सुहफरिस-वत्थ-भूसण-गुणोववेया रमणिजा उज्जगेय-पउर-णड-णट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिग-वेलंबग-कहग-पव्वगलासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्लतुंब-विणिय-ताला-यर-पकरणाणि य बहूणि महुरसरगीय-सुस्सराइं अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमेबंभचेर-घाओवघाइयाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं णं ताइं समणेण लब्भा दटुं ण कहेउं ण वि सुमरिउं जे एवं पुव्वरयं-पुव्वकीलिय-विरइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणविरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ, पुव्वरय - पहले भोगे हुए विषय-भोग, पुव्वकीलिय - पूर्व क्रीड़ित, पुवसंगंथ - गृहस्थावस्था के सम्बन्ध, गंथसंथुया - पूर्व के परिचित, जे ये - जो ये लोग, आवाह विवाह-चोल्लगेसु - द्विरागमन-गौना-विवाह, चूड़ा-कर्म-प्रथम मुण्डन प्रसंग में, तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य - पर्वतिथियों, यज्ञों नागादि पूजाओं और उत्सवों में, सिंगारागार-चारुवेसाहिं - शृंगार के घर के समान सुन्दर वेष वाली, हावभावपललिय-विक्खेव-विलास-सालिणीहिं - हाव-भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुशोभित, अणुकूल पेम्मिगाहिं - अनुकूल प्रेमिकाओं के, सद्धिं - साथ, अणुभूया सयणसंपओगा - अनुभव किये हुए शयन आदि विविध काम-शास्त्रोक्त प्रयोग, उउसुहवरकुसुम - ऋतुओं में सुखदायक फूल, सुरभि - सुगन्धित, चंदण - चंदन, सुगंधिवरवास - श्रेष्ठ सुगन्ध वाले सुवास, धूव - धूप, सुहफरिस वत्थ - सुखद स्पर्श वाले वस्त्र, भूसण - भूषण, गुणोववेया - गुणों से युक्त, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org