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- अब्रह्म सेवी देवादि
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५..अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार ८. दिशाकुमार ९. पवनकुमार १०. स्तनितकुमार। व्यंतर जाति के - १. आणपनिक २. पाणपनिक ३. ऋषिवादिक ४. भूतवादिक ५. कन्दित ६. महाकन्दित ७. कुष्माण्ड और ८. पतंग तथा - १. पिशाच २. भूत ३. यक्ष ४. राक्षस ५. किन्नर ६. किंपुरुष ७. महोरग और ८. गन्धर्व, ये भी व्यन्तर जाति के हैं। तिरछे लोक में ज्योतिषी देव तथा ऊपर के विमानवासी देव ये सभी अब्रह्मसेवी हैं। मनुष्य तथा जलचर, स्थलचर और नभचर तिर्यंच, ये सभी जीव मोह-परिपूर्ण चित्त से, काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हो कर, असीम इच्छा एवं तृष्णा युक्त होते हैं। ये जीव तामस-भाव से अत्यन्त मूछित होकर मैथुन सेवन करते हैं और अपने दर्शन और चारित्र गुण को दमन करने के लिए पिंजरा (आवरण) तैयार करते हैं। मैथुन सेवन से उनके दर्शन तथा चारित्र गुण, मोह के महाबन्धन में परिबद्ध हो जाते हैं।
विवेचन - इस सूत्र में अब्रह्मचर्य रूपी अधर्म का सेवन करने वाले देवादि का उल्लेख किया गया है। पहले भवनपति देवों की असुरकुमारादि दस जातियों का निर्देश किया है। पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देव भी इन्हीं में सम्मिलित हैं। व्यन्तरों में आणपन्नी आदि आठ तथा पिशाचादि आठ का नाम निर्देश किया गया। दस प्रकार के जृम्भक देव भी व्यन्तर ही हैं। ज्योतिषी देव चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र
और तारा ये पांच भेद हैं। इसके चर और स्थिर भेद से दस प्रकार हुए। वैमानिकों में पहले और दूसरे देवलोक तक ही देवियाँ है। मैथुन सेवन यहीं तक है। इसके आगे न तो देवांगना है और न मैथुन सेवन ही होता है। तीसरे देवलोक से लगा कर ऊपर अनुत्तर विमान तक केवल देव ही हैं। उनका वेदोदय क्रमश: मन्द होता है। तीसरे-चौथे देवलोक के देव, पहले व दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवियों से चुम्बन-मर्दनादि स्पर्श-परिचारणा करते हैं, पांचवें और छठे देवलोक के देव रूप-परिचारणा, सातवेंआठवें में शब्द परिचारणा और नौवें से बारहवें देवलोक के देव केवल मन-परिचारणा करते हैं। इसके आगे किसी भी प्रकार की परिचारणा (काम-सेवन) नहीं है।
कामभोग में अत्यन्त आसक्त जीवों की लुब्धता का वर्णन सूत्रकार ने "मोहपडिबद्धचित्ता" आदि बड़े मार्मिक शब्दों से किया है। टीकाकार लिखते हैं कि भोगासक्त भाषा-जीवी विद्वानों ने तो विधान तक कर दिया कि - .
"न मांसभक्षणे दोषो, न मधे न च मैथुने।
सेविताः शान्तिमायान्ति, असेव्या गद्धिवद्धिनः॥" . अर्थात् - न तो मांसभक्षण में कोई दोष है और न मद्यपान तथा मैथुन सेवन ही बुरा है। मांसभक्षण, मदिरापान और मैथुन सेवन से शांति प्राप्त होती है। किन्तु इनके सेवन नहीं करने से गृद्धता-आसक्ति बढ़ती है।
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.इस श्लोक का उत्राद्ध इस प्रकार भी है - "प्रवृत्तिरेसभूतानां, निवृत्तिं च महाफलाः" अर्थात्-यह तो जीवों की प्रवृत्ति ही है। किन्तु इनसे निवृत्त हो जाना महान फलदायक है।"
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