________________ 250 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ **************************************************************** भगवान् की प्रधान आज्ञा, आघवियं - सम्यक् प्ररूपित, सुदेसियं - भली प्रकार उपदेशित, पसत्थं - प्रशस्त, बिइयं - द्वितीय, संवरदारं - संवर-द्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - इस प्रकार यह दूसरे संवर-द्वार का स्पर्श, पालन एवं शोधन होता है, पार पहुँचाया जाता है, कीर्तित एवं आराधित होता है और जिनेश्वर की आज्ञा के अनुसार अनुपालित एवं आराधित होता है। इस प्रकार ज्ञातृ कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। प्ररूपित किया है। यह मार्ग विश्व में प्रसिद्ध एवं प्रमाणों से सिद्ध है। समस्त प्रयोजन सिद्ध करने वाले ऐसे तीर्थंकर भगवंत की यह प्रधान आज्ञा है, उनके द्वारा प्ररूपित है, उत्तम प्रकार से उपदेशित है और प्रशस्त है। यह दूसरा संवरद्वार पूर्ण हुआ, ऐसा मैं कहता हूँ। ॥सत्य-वचन नामक द्वितीय संवर द्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org