________________ 254 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०३ ****** ****************************************************** अन्य साधुओं (आचार्य अथवा रोगी आदि) के लिए जो आहारादि लाये हों, उसका स्वयं उपभोग नहीं करना चाहिए। दूसरों के सुकृत-उत्तम आचार (सद्गुणों अथवा उपकार) को छिपाना, किसी को प्राप्त होते हए दान में बाधक बनना, दिये हए दान का अपलाप करना. किसी की चगली करना तथा गुणीजनों को देखकर मात्सर्य भाव-ईर्षा करना, इन सभी दुर्गुणों का त्याग करना चाहिए। विवेचन - इस सूत्र में साधु को अल्पमूल्य अथवा अमूल्य (जो बिकती नहीं है और यों ही पड़ी हुई मिल जाती है) जैसे-सूखे हुए पत्ते, फूल, घास का तिनका, कंकर, मिट्टी आदि ऐसी नगण्य वस्तु को भी बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करने का आदेश दिया गया है। ऐसी वस्तु यदि उपाश्रय में हो (जिसकी आज्ञा लेकर ही साधु ठहरते हैं) तो भी बिना आज्ञा के नहीं लेनी चाहिए। यह विधान 'दत्तानुज्ञात' महाव्रत को सम्पूर्ण रूप से सुरक्षित रखता है और अदत्त-त्याग व्रत को परिपुष्ट करता है। शंका- साधु ग्रामादि में हो, तब तो गृहस्थ की आज्ञा ले सकता है। किन्तु वन में जा रहे हों और वहाँ सूखे पत्र, तिनके, मिट्टी या कंकर अथवा कांटा लेने की आवश्यकता हो, तब उस निर्जन वन में किस की आज्ञा प्राप्त करे? हर किसी गृहस्थ की आज्ञा तो ली भी नहीं जा सकती। जो वस्तु जिसके अधिकार-क्षेत्र की नहीं, उसकी आज्ञा उससे कैसे प्राप्त की जा सकती है? समाधान - आगम में इसकी विधि बताई है, जिसमें अनुज्ञा देने वाले- 1. देवेन्द्र 2. राजा 3. गृहपति (मण्डलेश, ठाकुर या जागीरदार) 4. सागारी (गृहस्थ) और 5. साधर्मिक। भगवती सूत्र श० . 16 उ० 2 में इसका उल्लेख है। जहाँ कोई आज्ञा देने वाला नहीं हो, वहाँ देवेन्द्र की आज्ञा लेकर वैसी उपेक्षणीय वस्तु ली जा सकती है। - जो वस्तु सदा से उपेक्षणीय रही, जिस पर कभी किसी ने अधिकार नहीं जमाया, जिसका कोई मूल्य ही नहीं और जिसे लेने पर कोई कभी टोंकता भी नहीं, ऐसे,सूखे पान, घास का तिनका, पत्थर आदि के लिए गृहस्थों को तो किसी से आज्ञा लेने की आवश्यकता ही नहीं होती, परन्तु साधु अदत्तत्यागी होने से निकटस्थ किसी भी गृहस्थ की आज्ञा ले सकता है। जिस वस्तु पर किसी एक का अधिकार नहीं, उस पर सब का अधिकार होता है। इसलिए ऐसी वस्तु की अनुज्ञा कोई भी व्यक्ति दे सकता है। मनुष्य का योग नहीं मिलने पर देवेन्द्र की आज्ञा से भी काम चल सकता है-जो भगवान् महावीर प्रभ को उनके शासन के साध-साध्वी के लिए प्राप्त हो चकी है। ___'अचियत्तघरप्पवेसो' - का टीका में-'अप्रीतिकारक घर में प्रवेश' अर्थ किया है। यह अर्थ दो प्रकार से बनता है। यथा-साधु उस घर में प्रवेश नहीं करे कि जिसके प्रति स्वयं का विश्वास नहीं हो अथवा लोक में अप्रतीतकारी माना जाता हो। दूसरा अर्थ यह भी है-जिसके हृदय में साधु के प्रति प्रीति अथवा विश्वास नहीं, उस घर में साधु को प्रवेश नहीं करना चाहिए। दंडग - दण्ड-ओघनियुक्ति गा० 730 में लट्ठी, विलट्ठी दंड और विदंड का स्वरूप बतलाया है। दण्ड का प्रमाण-'दंडो बाहुपमाणो'-बाहु-कन्धे तक लम्बा होता है। इसका उपयोग 'दुद्रुपसुसाणसावयचिक्खलविसमेसु उदगमझे। लट्ठी सरीररक्खा तवसंजमसाहिया भणिया'॥७३९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org