________________ 275 ब्रह्मचर्य के घातक निमित्त *************************************************************** भावार्थ - ब्रह्मचारी को देव और नरेन्द्र भी नमस्कार करते हैं, इतना ही नहीं देव और नरेन्द्र ब्रह्मचारी शुद्धात्मा की पूजा-सत्कार करते हैं। संसार के सभी प्रकार के मंगल-मार्गों में ब्रह्मचर्य उत्तमोत्तम मंगल-मार्ग है। विशुद्ध ब्रह्मचारी न तो किसी से दबता है और न कोई उसे डिगा सकता है। ब्रह्मचर्य महाव्रत अन्य सभी व्रतों और गुणों का एकमात्र नायक है और मोक्षमार्ग के लिए मस्तक के मुकुट के समान है। . - ब्रह्मचर्य के घातक निमित्त जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू स इसी स मुणि स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरइ बंभचेरं। इमं च रइरागदोस-मोह-पवड्डणकरं किंमज्झपमाय दोसपासत्थ-सीलकरणं अब्भंगणाणि य तेल्लमजणाणी य अभिक्खणं कक्खसीस-कर-चरण-वयण-धोवण-संबाहण-गायकम्म-परिमद्धणाणुलेवण-चुण्णवासधुवण-सरीर-परिमंडण-बाउसिय-कहसिय-भणिय-णट्टगीयवाइय-णड-पट्टग-जल्लमल्ल-पेच्छण-वेलंबगंजाणिय सिंगारागाराणि य अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमबंभचेर-घाओवघाइयाई अंणचरमाणेणं बंभचेरं वजियव्वाइं सव्वकालं। शब्दार्थ - जेण सुद्धचरिएण - जिसके शुद्ध आसेवन करने से, भवइ - होता है, सुबंभणो - सच्चा ब्राह्मण, सुसमणो - यथार्थ तपस्वी, सुसाहू = सच्चा साधु, स इसी -वही ऋषि है, स मुणि - . वही मुनि है, स संजए - वही संयत है, स एव भिक्खू - वही भिक्षु है, जो सुद्धं चरइ बंभचेरं - जो शुद्ध रीति से ब्रह्मचर्य का पालन करता है, इमंच - और इस, रइरागदोसमोहपवड्डणकर - रति-विषय-राग, राग-स्नेह-राग, द्वेष और मोह को बढ़ाने वाला, किंमज्झपमायदोसपासत्थसीलकरणं - प्रमाद दोष और ज्ञानादि आचार से पृथक् करने वाला निस्सार, अब्भंगणाणि - घृत आदि की मालिश अथवा उबटन करना, तेलमजणाणि - तेल की मालिश कर स्नान करना, अभिक्खणं - बार-बार, कक्ख सीस-करचरण वयण - काँख-बगल शिर, हाथ, पांव और मख को, धोवण - धोना, संबाहण - पगचम्पी करना, गायकम्म परिमद्दण - शरीर का मर्दन करना, अणुलेवण - चन्दन आदि का लेपकरना, चुण्णवास - सुगन्धित द्रव्यों से शरीर को सुवासित करना, धूवण - अगर आदि से धूप देना, सरीरपरिमंडण - शरीर को मण्डित-सुशोभित करना, बाउसिय - चारित्र को बकुश बनाने वाली क्रिया, कहसिय - हास्य करना, भणिय - विकारयुक्त बोलना, णट्ट - नृत्य करना, गीय - गीत गाना, वाइय - बाजा बजाना, णडणट्टगनाच करने वाले नटों का खेल, जल्ल - रस्सी पर खेलने वाले, मल्ल - कुश्ती लड़ने वाले, पेच्छण - इन सब को देखना, वेलंबगं - विदूषक की हास्य-चेष्टाएं, जाणिय - और जो, सिंगारागाराणि - शृंगार-रस के स्थान हैं, अण्णाणि - अन्य, एवमाइमाइणि - इसी प्रकार के, तवसंजमबंभचेरघावोवघाइयाई - तप, संयम और ब्रह्मचर्य की घात व उपघात करने वाले, अणुचरमाणेणं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org