________________ महाव्रतों का मूल 273 *************************************************************** 1. जिस प्रकार ग्रहगण, नक्षत्र और तारों के समूह में चन्द्रमा श्रेष्ठ एवं प्रधान है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत श्रेष्ठ एवं प्रधान है। 2. जिस प्रकार मणि, मोती, शिला, प्रवाल और रक्त-रत्न आदि रत्नों का उत्पत्ति स्थान समुद्र है, उसी प्रकार समस्त व्रतों का उत्पत्ति स्थान ब्रह्मचर्य है। 3. जैसे मणियों में वैडुर्यमणि 4. भूषणों में मुकुट 5. वस्त्रों में क्षोमयुगल 6. पुष्पों में ज्येष्ठ अरविन्द पुष्प 7. चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन 8. औषधियुक्त पर्वतों में हिमवान पर्वत 9. नदियों में शीतोदा 10. समुद्रों में स्वयंभूरमण- 11. गोल पर्वतों में रुचकवर 12. हाथियों में ऐरावत 13. मृगों में श्रेष्ठ मृगराज-सिंह 14. सुपर्णकुमार देवों में वेणुदेव 15. नागकुमारदेवों में धरणेन्द्र 16. कल्प-विमानों में ब्रह्मदेव लोक 17. सभाओं में इन्द्र की सुधर्म सभा 18. स्थिति में उत्तम लवसप्तम देवों की स्थिति 19. दानों में अभयदान 20. कम्बलों में किरमची रंग का कम्बल 21. संहननों में वज्र-ऋषभनाराच संहनन 22. संस्थानों में समचतुरस्र संस्थान 23. ध्यानों में परम शुक्ल-ध्यान 24. ज्ञानों में प्रसिद्ध परम केवलज्ञान 25. लेश्याओं में परम शुक्ल लेश्या 26. मुनियों में तीर्थंकर 27. क्षेत्रों में महाविदेह 28. पर्वतों में गिरिराज मेरु पर्वत 29. वनों में श्रेष्ठ नन्दन वन और 30. वृक्षों में सुदर्शन नामक जम्बू वृक्ष विख्यात एवं यशस्वी है और उसी के नाम से यह द्वीप 'जम्बूद्वीप' कहलाता है। उसी प्रकार सभी व्रतों में श्रेष्ठ एवं उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत है। 31. जिस प्रकार अश्वपति, गजपति, रथपति और नरपति विख्यात होते हैं। हयदल, गजदल, रथसेना और पदातिसेना से नरेन्द्र सुशोभित होता है, उसी प्रकार व्रताधिराज ब्रह्मचर्य भी सभी व्रतों का अधिपति है। . 32. जिस प्रकार महारथ पर आरुढ़ महाराजा (वासुदेव) शत्रु-सैन्य को नष्ट करता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य का पालक महात्मा, कर्म-समूह को नष्ट करता है। - एक ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करने वाले अनेक गुण अपने-आप आधीन हो जाते हैं। इसकी आराधना करने से शील, तप, विनय, संयम, क्षांति, गुप्ति, मुक्ति आदि सभी गुणों की आराधना हो जाती है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से इसलोक और परलोक में यश और कीर्ति व्याप्त हो जाती है। लोगों में प्रतीति होती है। इसलिए निश्चलता से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। साधु को चाहिए कि जीवनभर एवं मृत्युपर्यन्त सभी प्रकार से शुद्धतापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करे। इस प्रकार स्वयं भगवान् महावीर ने इस महाव्रत का महत्त्व बतलाया है। महाव्रतों का मूल तं च इमं - पंच महव्वयसुव्वयमूलं, समणमणाइलसाहुसुचिण्णं। वेरविरामणपजवसाणं, सव्वसमुद्दमहोदहितित्थं // 1 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org