________________ 279 **************************************************************** ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ पच्छवत्थुग - पश्चाद् गृह-पीछे का घर, पसाहणग - प्रसाधन, ण्हाणिगावगासा - शरीर के मंडन और स्नान करने के स्थान, अवगासा - स्थानों पर, जे - जिन, य - और, वेसियाणं - वेश्याएं, अच्छंति - बैठती हैं, य - और, जत्थ - जहाँ, इत्थियाओ - स्त्रियाँ, अभिक्खणं - बार-बार, मोहदोसरइरागवड्डणीओ - मोह, द्वेष, रति और राग को बढ़ाने वाली, कहिंति - कहती है, कहाओ - कथाएँ, बहुविहाओ - बहुत प्रकार की, ते - उनको, वजणिज्जा - त्याग करे, इत्थिसंसत्तसंकिलिट्ठा - स्त्री सम्बन्ध से व्याप्त-संक्लिष्ट, अण्णे वि य - और दूसरे भी जो, एवमाइ - इस प्रकार के, अवगासा - स्थान, ते - हु, वज्जणिज्जा - वे भी वर्जनीय हैं, जत्थ - जहाँ, मणोविब्भमो - मन की भ्रांति, वा - अथवा, भंगो - सर्वथा भंग, वा - अथवा, भंसगो - देशतः भंग, वा - अथवा, अस॒रुदं व - आर्त और रौद्र, हुज झाणं - ध्यान हो, तं तं वज्जेजऽवज्जभीरु अणायतणं - उस-उस अनायतन-योग्य स्थान का पाप-भीरु त्याग करे, अंतपंतवासी - अन्त-प्रान्त स्थान अर्थात् दोष-रहित स्थान में निवास करे, एवमसंसत्त-वास-वसही-समिइ-जोगेण - इस प्रकार स्त्री आदि के संसर्ग से रहित स्थान में ठहरने रूप समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, आरयमण-विरयगामधम्मे - ब्रह्मचर्य में मर्यादा से आरक्त मन वाला तथा इन्द्रिय-लोलुपता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेरगुत्ते - ब्रह्मचर्य से गुप्त। __ भावार्थ - अब्रह्मचर्य रूप चौथे पाप की निवृत्ति रूप इस महाव्रत की रक्षा के लिए पांच भावनाएं हैं। इनमें प्रथम भावना यह है। जिस स्थान पर स्त्रियों का संसर्ग हो, उस स्थान पर साधु सोए नहीं, आसन लगाकर बैठे नहीं। जिस घर के द्वार का आँगन, अवकाश-स्थान (खली जगह-छत आदि) गवाक्ष (खिडकी-गोख आदि) शाला, अभिलोकन (दूरस्थ वस्तु देखने का) स्थान, पीछे का द्वार या पीछे का घर, शृंगार-गृह और स्नानघर आदि जहाँ स्त्रियाँ हो या दिखाई दे, उन स्थानों को वर्जित करे। जिस स्थान पर बैठकर स्त्रियाँ, मोह, द्वेष रहित और राग बढ़ाने वाली अनेक प्रकार की बातें करती हैं, वैसी कथा-कहानियें कहती हैं और जिन स्थानों पर वेश्याएं बैठती हैं, उन स्थानों को वर्जित करें। वे स्थान स्त्रियों के संसर्ग से संक्लिष्ट हैं, दोषोत्पत्ति के कारण हैं। ___ ऐसे अन्य सभी स्थानों का साधु त्याग कर दे। जहां रहने से मन में भ्रांति उत्पन्न होकर ब्रह्मचर्य को क्षति युक्त करे, ब्रह्मचर्य देशतः या सर्वत: नष्ट होता हो, आर्त और रौद्र ध्यान उत्पन्न हो, उन सभी स्थानों का त्याग करे। ब्रह्मचर्य को नष्ट करने वाले पाप से डरने वाले साधु के लिए ये स्थान रहने के / योग्य नहीं है। इसलिए साधु, अन्त-प्रान्त आवास (अन्त-इन्द्रियों के प्रतिकूल पर्ण-कुटि आदि, प्रान्त शून्यगृह श्मशानादि ऐसे निर्दोष स्थान में रहे। इस प्रकार स्त्री और नपुंसक) के संसर्ग रहित स्थान में रहने रूप समिति के पालन से अन्तरात्मा पवित्र होती है। जो साधु ब्रह्मचर्य के निर्दोष पालन में तत्पर होकर इन्द्रियों के विषयों से वंचित रहता है, वह जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचर्य-गुप्त कहलाता है। ' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org