________________ ब्रह्मचर्य रक्षक नियम 277 **************************************************************** अचेलग-खुप्पिवास-लाघव-सीउसिण कट्ठसिजा-भूमिणिसिजा-परघरपवेसलद्धावलद्ध-माणावमाण-णिंदण-दसमसम-फास-णियम-तव-गुण-विणय-माइएहिं जहा से थिरतरगं होइ बंभचेरं। इमं च अबंभचेर-विरमण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्ख-पावाणं विउसमणं। शब्दार्थ - भावियव्यो - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, इमेहिं - इन, तवणियमसीलजोगेहिं - तप, नियम और शील आदि गुणों के, णिच्चकालं - सदैव, किं ते - वे कौनसे हैं ? अण्हाणग - स्नान नहीं करना, अदंतधावण - दातुन न करना, सेयमलजल्लधारणं - पसीना और मैल को धारण करना, मूणवय - मौन व्रत धारणा करना, केसलोए - केश-लोच करना, खम-दमअचेलग - क्षमा, इन्द्रियों का निग्रह और वस्त्र रहित या अल्पवस्त्र रखना, खुप्पिवास - भूख-प्यास सहन करना, लाघव - उपधि से हल्कापन, सीउसिण - सर्दी और गर्मी, कट्टसिज्ज - काष्ठ-शय्या, भूमिणिसिज्जा - भूमि-शयन; परघरपवेस - पराये घर में जाना, लद्धावलद्धमाणावमाण - लाभ और अलाभ में तथा मान या अपमान, जिंदण - निन्दा, दंसमसगफास - डाँस, मच्छर आदि का कष्ट सहना, णियम-तवगुण-विणयमाइएहिं - नियम, तप, गुण और विनय आदि से, जहा से थिरतरगं होइ बंभचेरंजिससे उस व्रती का ब्रह्मचर्य अत्यन्त स्थिर हो, इमं य- और यह, अबंभचेर-विरमण-परिरक्खणट्ठयाएमैथुन से निवृत्ति रूप व्रत की रक्षा के लिए, पावयणं - प्रवचन, भगवया - भगवान् ने, सुकहियं - उत्तम प्रकार से कहा है, अत्तहियं - आत्मा के लिए हितकारी, पेच्चाभावियं - परलोक में शुभ-फलदायक, आगमेसिभई - भविष्य में कल्याण का कारण, सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याययुक्त, अकुडिलं - कुटिलता-रहित, अणुत्तरं - प्रधान, सव्वदुक्ख-पावाणं - समस्त दुःख और पापों को, विउसमणं - शान्त करने वाले। . . . . भावार्थ - जिन तप, नियम, शील और शुभयोग आदि गुणों का नित्य एवं निरन्तर सेवन करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है, वे नियम कौन से हैं ? स्नान नहीं करना, दांतों को धोकर चमकीले नहीं बनाना, स्वेद (पसीना) और पसीने से मिश्रित मैल को शरीर से पृथक् नहीं करना, मौन रहना (अनावश्यक नहीं बोलना) केशों को लोच करना, क्षमा करना, इन्द्रियों का दमन करना, निर्वस्त्र या अल्प-मूल्य के अल्प वस्त्र से रहना, भूख-प्यास सहन करना, अल्प उपकरणों से हल्का रहना, शीत और उष्ण का परीषह सहन करना, लकड़ी के पटिये पर सोना या भूमि पर ही शयन करना, भिक्षा के लिए पराये घरों में जाना, लाभ और अलाभ, मान और अपमान तथा निन्दा को समभाव से सहन करना, डाँस-मच्छर के परीषह को सहना, अभिग्रहादि नियम और अनशनादि तप, मूलोत्तर गुण और विनयादि गुणों को धारण करना। जिन गुणों के धारण करने से ब्रह्मचर्य स्थिर हो, उन सभी गुणों का सेवन करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org