Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 295
________________ 278 - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०४।। **************************************************************** चाहिए। अब्रह्म त्याग व्रत की रक्षा के लिए भगवान् ने यह उत्तम प्रवचन कहा है। यह प्रवचन स्व-पर आत्मा के लिए हितकारी है। भवान्तर में शुभ-फल देने वाला है और भविष्य में कल्याणकारी है। शुद्ध है, न्याययुक्त है, अकुटिल (सरल) है, उत्तमोत्तम है और पापों का उपशमन करके समस्त दुःखों को दूर करने वाला है। विवेचन - जब तक जीव में वेदमोहनीय कर्म का उदय है, तब तक वैसे निमित्त सुप्त मोह को जाग्रत कर उद्दीप्त कर सकते हैं। आत्मा में सुखशीलियापन की भावना उत्पन्न होती है, तब शरीरसंस्कार की रुचि होती है और तभी दबे हुए विकारी भावों के उठने का अवकाश रहता है। 'स्नानं दर्पकर'-स्नान, कन्दर्प को जगाने वाला है। केश-विन्यास भी श्रृंगार है। शरीर एवं वस्त्रादि को सुशोभित करने से वेदमोहनीय कर्म में साधारण उदय को उत्तेजना मिलती है। जिस से ब्रह्मचर्य को क्षति पहुचने की संभावना रहती है। आत्म (धर्म) भावना से ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहकर पुष्ट होता है. और उदय निष्फल होता है। परन्तु देह-भावना (विभूषा वृत्ति) व्रत को क्षति पहुँचाती है। इसीलिए परमोपकारी सूत्रकार भगवंत, शरीर-संस्कार की वृत्ति त्यागने का उपदेश देते हैं। इन नियमों का पालन . करने से ब्रह्मचर्य स्थिर होता है, पुष्ट होता है और उत्तमोत्तम फल देता है। ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाएं प्रथम भावना-विविक्त-शयनासन तस्स इमापंच भावणाओ चउत्थं वयस्स होंति अबंभचेरविरमण-परिरक्खणट्टयाए। पढमं सयणासण-घर-दुतार-अंगण-आगास-गवक्ख-साल-अभिलोयण-पच्छवत्थुगपसाहणग-ण्हाणिगावगाससा अवगासा जे य वेसियाणं अच्छंति य जत्थ इत्थियाओ अभिक्खणं मोहदोस-रइराग-वड्वणीओ कहिंति य कहाओ बहुविहाओ ते वि हु वजणिजा इत्थिसंसत्त-संकिलिट्ठा अण्णे वि य एवमाइ अवगासा ते हु वजणिज्जा। जत्थ मणोविब्भमो वा भंगो वा भंसणा (भसंगो) वा अट्ट रुदं य हुज्ज झाणं तं तं वजेजऽवज्जभीरु अणाययणं अंतपंतवासी एवमसंसत्तवास-वसही समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, आरयमण-विरयगाम-धम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। ___ शब्दार्थ - तस्स - उस, इमा - ये, पंच भावणाओ - पांच भावनाएं, चउत्थं वयस्स - चतुर्थ व्रत की, होति - होती है, अबंभचेर-विरमण-परिरक्खणट्ठयाए - अब्रह्मचर्य से निवृत्ति रूप व्रत की रक्षा के लिए, पढमं - प्रथम, सयणासण - शय्या और आसन, घरदुवार - गृहद्वार, अंगण - आँगन, आगासआकाश, गवक्ख - गवाक्ष, साल - शाला, अभिलोयण - अभिलोकन-बैठकर देखने का ऊँचा स्थान, ........ .. .... .. . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354