________________ . 3deg2 अ०४ 272 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०४ **************************************************************** समुद्दो - जैसे समुद्र है, वेरुलिओ चेव जहा मणिणं - मणियों के बीच जैसे वैडुर्य मणि प्रधान है, जहा मउडो चेव भूसणाणं - आभूषणों के बीच जैसे मुकुट, वत्थाणं चेव खोमजुअलं - वस्त्रों में जैसे क्षौमयुगल कपास का वस्त्र, अरविंदं चेव पुष्फजेटुं - फूलों में जैसे अरविन्द कमल, गोसीसं चेव चंदणाणं - चन्दनों में जैसे गोशीर्ष, हिमवंतो चेव ओसहीणं - औषधियों की उत्पत्ति-स्थान में हिमवान् के समान, सीतोदा चेव णिण्णगाणं - नदियों में शीतोदा नदी के समान, उदहीसु जहा सयंभूरमणो - समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान, त्यगवर चेव मंडलियपव्वयाणं पवरे - माण्डलिक गोल पर्वतों में रुचकवर गिरि के समान, एरावण इव कुंजराणं - हाथियों में एरावत हाथी, सीहोव्व जहा मियाणं पवरे - मृगों में जैसे सिंह प्रधान है, पवगाणं चेव वेणुदेवे - सुवर्ण-कुमारों के बीच जैसे वेणुदेव, धरणो जहा पण्णगिंदराया - नागकुमारों में जैसे धरणेन्द्र, कप्पाणं चेव बंभलोए - कल्प-देवलोक में जैसे ब्रह्मलोक, सभासु य जहा भवे सुहम्मा - सभाओं में जैसे सुधर्मा-देवसभा, ठिइसु.लवसत्तमव्व पवरास्थितियों में जैसे अनुत्तर विमानवासी देवों की स्थिति, दाणाणं चेव अभयदाणं - दानों में अभयदान, किमिराउ चेव कंबलाणं - कम्बलों में कृमिरागा-रक्त कम्बल, संघयणे चेव वजरिसहे - संहननों में वज्रऋषभ-नाराच संहनन, संठाणे व समचउरंसे - संस्थानों में समचतुरस्र संस्थान, झाणेसु य परमसुक्कज्झाणं - ध्यानों में परम शुक्लध्यान, णाणेसु य परम केवलं पसिद्ध - ज्ञानों में केवल परम ज्ञान प्रसिद्ध है, लेसासु य परमसुक्कलेसा - लेश्याओं में परम शुक्ललेश्या, तित्थयरे चेव जहा मुणीणंमुनियों में तीर्थंकर, वासेसु जहा महाविदेहे - क्षेत्रों में महाविदेह, गिरिराया चेव मंदरवरे - पर्वतों में जैसे मन्दर-मेरु पर्वत, वणेसु जहा णंदणवणं पवरं - वनों में जैसे नन्दन वन श्रेष्ठ है, दुमेसु जहा जंबू सुदंसणा विसुय जसा - वृक्षों में जैसे जम्बू सुदर्शन वृक्ष विश्रुत-विख्यात कीर्ति वाला है, जीय णामेण य अयं दीवो - जिसके नाम से यह द्वीप-जम्बूद्वीप कहा जाता है, तुरगवई गयवई रहवई णरवई जह वीसुए.चेव - अश्वपति, गजपति, रथपति और नरपति राजाओं के समान विख्यात, राया रहिए चेव जहा महारहगए - महारथ पर चढ़ा हुआ रथिक राजा,.एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति - इस प्रकार अनेक गुण, पूर्ण और स्वाधीन होते हैं, एग्गम्मि बंभचेरे जम्मि य आराहियम्मि - एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर, आराहियं वयंमिणं सव्वं - यह सब निर्ग्रन्थव्रत पालित होता है, सीलं - शील, तवो - तप, विणओ - विनय, संजमो - संयम, खंतिं गुत्ति मुत्ति - क्षमा, गुप्ति और मुक्ति, तहेव - इसी प्रकार, इहलोइयपारलोइयजसे य कित्ती य - इस लोक और परलोक में यश और कीर्ति, पच्चओ - विश्वास का कारण, तम्हा - इसलिए, णिहुएण- स्थिर चित्त से, बंभचेरं चरियव्वं - ब्रह्मचर्य का पालन करना .. चाहिए, सव्वओ विसुद्धं - सर्वथा विशुद्ध, जावज्जीवाए - आजीवन, जाव सेयट्ठि - यावत् श्वेतास्थि अर्थात् मृत्यु पर्यन्त, संजओ - साधु को, एवं भणियं वयं भगवया - इस प्रकार भगवान् महावीर ने प्रतिपादन किया है। भावार्थ - यह ब्रह्मचर्य भगवान् (ऐश्वर्य सम्पन्न) है। इसकी उपमाएं इस प्रकार हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org