________________ 258 - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०३ बताया है कि - जो साधु, संयम-साधना में आवश्यक ऐसे उपकरण के संग्रह और आहार-पानी प्राप्त कर साधर्मी-साधुओं को देने में कुशल है। जो अत्यन्त दुर्बल, बाल, ग्लान (रोगी) वृद्ध, क्षपक (जो मास-खमणादि उत्कट तप करता है) प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय, नवदीक्षित शिष्य, साधर्मिक, तपस्वी, कुल, गण, संघ की दस प्रकार अथवा बहुत प्रकार की वैयावृत्य, कीर्ति आदि की इच्छा के बिना चैत्यार्थ (ज्ञान प्राप्ति के लिए) और निर्जरा के लिए करता है, जो अप्रीति वाले घर में प्रवेश नहीं करता, अप्रीतिकारी घर से आहारादि नहीं लेता और न अप्रीतिकारी घर के पीढ़, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्डक, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टक, मुंहपत्ति, पादपोंछन, भाजन, उपधि, भण्डोपकरण का सेवन नहीं करता, दूसरों की निन्दा नहीं करता, दूसरों के दोषों को ग्रहण नहीं करता, आचार्य अथवा रोगी आदि के बहाने से कोई वस्तु नहीं लेता, किसी व्यक्ति को दानादि धर्म से विमुख नहीं बनाता, किसी के दान और सदाचरण को छुपाता नहीं, जो आहारादि लाकर देने (वैयावृत्य करने) के बाद पछतावा नहीं करता, जो प्राप्त आहारादि का यथायोग्य विभाग करता है, जो योग्य शिष्य तथा उपकरणादि का संग्रह करने, आहारादि देने और अध्ययन कराने में कुशल है-ऐसा साधु, इस व्रत की आराधना करता है। विवेचन - शरीरधारियों के लिए आहारादि पर वस्तुओं की आवश्यकता होती ही है-साधुओं के . लिए भी। गृहस्थ लोगों की साधन-प्राप्ति निर्दोष नहीं होती, किन्तु साधुओं का जीवन निर्दोष होता है। उन्हें आवश्यक सामग्री निर्दोष रीति से ही प्राप्त करनी होती है। इस सूत्र में विविध स्थिति वाले साधुओं और उनकी आवश्यकताओं का उल्लेख कर तदनुकूल वैयावृत्य करने का निर्देश किया है। अत्यंतबाल - आठ वर्ष की उम्र वाला साधु। - क्षपक-"क्षपको विकृष्ट तपस्वी मासक्षपणादि निरन्तर कर्ता'-मासखमणादि निरन्तर उत्कट तप करने वाले। प्रवर्तक - 'सीदन्त प्रतिचरणधर्मप्रवर्तते प्रवर्तावयति स प्रवर्तक:-चारित्र धर्म में प्रवृत्ति करने और साधुओं से यथायोग्य प्रवृत्ति कराने वाले। कुल - एक गुरु के शिष्यों का समुदाय अथवा-एक ही वाचनाचार्य से ज्ञानाध्ययन करने वाले शिष्यों का समूह। गण-अनेक कुलों से बना हुआ समूह। संघ-गण-समूह का संग्राहक तथा साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका-यह चतुर्विध संघ। ... चेइयढे - चैत्यार्थ चैत्य के लिए। टीकाकार चैत्य शब्द का अर्थ करते हैं-'जिन प्रतिमा'। यह अर्थ पंचम काल में उत्पन्न, अपने समय में बहु विकसित और व्यापक बनी हुई मूर्तिपूजा के प्रभाव से हुआ होगा, जबकि साधु मन्दिर-मूर्ति के लिए स्वयं आरम्भ-समारम्भ करवाते थे। स्थान-स्थान पर मंदिर बनवाना, मूर्ति स्थापित करना, प्रतिष्ठा करवाना, महापूजा का आरम्भ करना, संघ निकाल कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org