Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 278
________________ * प्रथम भावना-निर्दोष उपाश्रय 261 **************************************************************** प्रथम भावना-निर्दोष उपाश्रय पढमं देवकुल-सभा-प्पवा-वसह-रुक्खमूल-आराम-कंदरागर-गिरि-गुहाकम्मउज्जाण-जाणसाला-कुवियसाला-मंडव-सुण्णघर-सुसाण-लेण-आवणे अण्णम्मि य एवमाइयम्मि दग-मट्टिय-बीज-हरिय-तसपाण असंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं / आहाकम्मबहुले य जे से आसिय-सम्मजियउस्सित्तसोयि-छायण-दूमण-लिंपण-अणुलिंपण-जलण-भंडचालणं अंतो बहिं च असंजमो जत्थ वड्डइ संजयाण अट्ठा वज्जियव्वो हु उवस्सओ से तारिसए सुत्तपडिकुटे। एवं विवत्तवासवसहिसमिइजोगेण भाविओ भवइ * अंतरप्पा णिच्चअहिगरणकरणकारावणपावकम्मविरओ दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। शब्दार्थ - तस्स - उसकी, पंच - पांच, भावणाओ - भावनाएं, तइयस्स - तीसरे की, होति - हैं, परदव्वहरणवेरमण - पर-द्रव्य के हरण से विरमण रूप, परिरक्खणट्ठाए - रक्षा के लिए। पढमं - प्रथम, देवकुल - मंदिर, सभा - सभा, प्पवा - प्रपा-प्याऊ, आवसह - संन्यासी लोगों का मठ, रुक्खमूल - वृक्ष का मूल, आराम - बगीचा, कंदरा - गुफा, आगर - खान, गिरिगुहा - पर्वत की गुफा, कम्म - चूना आदि बनाने का स्थान, उज्जाण - उद्यान, जाणसाला - रथशाला, कुवियसाला - घर का सामान रखने का स्थान, मंडव - मण्डप, सुण्णघर - शून्य घर, सुसाण - श्मशान, लेण - पर्वत के नीचे का घर, आवणे - आपण-दुकान, अण्णम्मि - अन्य स्थान में, एवमाइयम्मि - इसी प्रकार के, दग-मट्टिय-बीज-हरिय-तसपाणअसंसत्ते - जल, सचित्त, मिट्टी, बीज, हरी वनस्पति और बेइन्द्रिय आदि त्रस प्राणी से रहित, अहाकडे - गृहस्थ ने निज के लिए बनाया हो, फासुए - प्रासुक, विवित्ते - विविक्त, पसत्थे - प्रशस्त, उवस्सए - उपाश्रय में, विहरियव्वं - ठहरना, आहाकम्मबहुले - आधाकर्म दोष की बहुलता वाला हो, आसिय - जल के छींटे डाला हुआ, सम्मज्जिय - झाडू से कचरा निकाला हुआ, उस्सित्त - उत्सिक्त-जल का विशेष रूप से छिड़काव किया गया हो, सोहिय - शोभित , छायण - छप्पर आदि से छाया गया हो, दूमण - चूना आदि लगाकर सफेद किया गया हो, लिंपण - लीपा हुआ, अणुलिंपण - बार-बार लीपा गया, जलण - अग्नि जलाई हो, भंडचालण - बरतन आदि हटाये हों, जत्थ - जहाँ, अंतो - भीतर, य - तथा, बहिं - बाहर, असंजमो - असंयम की, वड्डइ - वृद्धि, संजयाणअट्ठा - साधु के लिए, वज्जियव्यो - वर्जित करना, तारिसए - ऐसा, उवस्सओ - उपाश्रय, सुत्तपडिकुट्टे - शास्त्र से वर्जित, एवं - इस प्रकार, णिच्चं - सदा, विवत्तवासं - विविक्तवास, वसहि - स्थान, समितिजोगेण - समिति का पालन करने से, अंतरप्पाअन्तरात्मा, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अहिगरणकरणकारावणपावकम्मविरओ - दुर्गतिजनक कार्यों के करने और कराने रूप पाप-कर्म से निवृत्त होना, दत्तमणुण्णायउग्गहरुई - दिये हुए और अनुज्ञा किये हुए पदार्थ को ही ग्रहण करने की रुचि वाला। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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