Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 280
________________ 263. तृतीय भावना-शय्या-परिक वर्जन **************************************************************** शब्दार्थ-बिइयं - द्वितीय, आराम - बगीचा, उज्जाण - उद्यान, काणण - नगर का निकटवर्ती वन, वणप्पदेसभागे - वन प्रदेश, इक्कडं - सूखा घास, कठिणगं - कठिनक-तृण विशेष, जंतुगं - जलाशय में उत्पन्न होने वाला तृण विशेष, परा - एक प्रकार का घास, मेर - मुंज, कुच्च - कुर्च-जिससे कूची आदि बनाई जाती है, कुसु - कुश, डब्भ - डाभ, पलाल - पलाल, मूयग - मूयक-एक प्रकार का तृण विशेष, वक्कय - वल्कल, पुष्फ - फूल, फल - फल, तय - त्वचा, प्पवाल - प्रवाल, कंद - कन्द, मूल - मूल, तण - तृण, कट्ठ - काष्ठ, सक्कराइ - शर्करा, सेज्जोवहिस्सअट्ठा - बिछाने तथा अन्य कार्य के लिए, गिण्हइ - ग्रहण करना, उग्गहे - अवग्रह, अदिण्णम्मि - बिना आज्ञा, ण कप्पएनहीं कल्पता, हणि हणि - प्रतिदिन, जे - जो, अणुण्णविय - आज्ञा लेकर, गिण्हियव्वं - ग्रहण करना, एवं - इस प्रकार, णिच्चं - सदा, उग्गहसमिइजोगेण - अवग्रह समिति का पालन करने से, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, भाविओ - भावित, भवई - होती है, अहिगरण-करण-कारावण-पावकम्म-विरए - दुर्गतिजनक कार्यों के करने और कराने रूप पापकर्मों से रहित, दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई - प्रदत्त और अनुज्ञा की हुई वस्तु को ही ग्रहण करने वाला। भावार्थ - दूसरी भावना अनुज्ञात-संस्तारक है। आराम, उद्यान, कानन और वन-प्रदेश में सूखा घास, कठिनक (तृण विशेष) जलाशयोत्पन्न तृण, परा (तृण विशेष) मेरर (मुंज) कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्कल, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और कंकरादि बिछाने या अन्य कार्य के लिए ग्रहण करना हो और वह वस्तु उपाश्रय के भीतर हो, तो भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना साधु के लिए कल्पनीय नहीं है। जिस स्थान में मुनि ठहरा है, उसमें रहे तृण आदि के ग्रहण करने की भी प्रतिदिन आज्ञा लेनी चाहिए। इस प्रकार अवग्रह-समिति का सदैव पालन करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गति-दायक पाप-कर्मों के करने-कराने से निवृत्त होती है तथा दत्तानुज्ञात वस्तुं ही ग्रहण करने की रुचि होती है। .तृतीय भावना-शय्या-परिकर्म वर्जन तइयं पीढ-फलग-सिजा-संथारगट्ठयाए रुक्खा ण छिंदियव्वा ण छेयणेण भेयणेण सेजा कारियव्वा जस्सेव उवस्सए वसेज सेनं तत्थेव गवेसिज्जा, ण य विसमं समं करेजा ण णिवायपवायउस्सुगत्तं ण डंसमसगेसु खुभियव्वं अग्गी धूमो ण कायव्वो, एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयंतो सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एगे चरिज धम्मं, एवं सेजासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। शब्दार्थ - तइयं - तृतीय, पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगट्ठयाए - पीढ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए, रुक्खा - वृक्ष, ण छिंदियव्वा - छेदन नहीं करना, छेयणेण - छेदन, भेयणेण - भेदन, सिज्जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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