Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 283
________________ 266 ** * प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 3 ******************************** ** ************************************** शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, साहम्मिए - साधर्मिक, विणओ - विनय, पउंजियव्यो - करना चाहिए, उवगरणपारणासु - ग्लान तपस्वी एवं ज्ञानी साधु का, विणओ पउंजियव्यो - विनय करना चाहिए, वायणपरियट्टणासु - सूत्र ग्रहण रूप वाचना में और आवृत्ति में, विणओ पउंजियव्यो - विनय करना चाहिए, दाणगहणपुच्छणासु- देने में, ग्रहण करने में और पृच्छा में, विणओ पउंजियव्योविनय करना चाहिए। णिक्खमण-पवेसणासु - स्थान से निकलने व प्रवेश करने में आवश्यकीय आदि, विणओ पउंजियव्यो - विनय करना चाहिए, अण्णेसु य एवमाइसु - अन्य और इसी प्रकार मकाणसास- बहुत से सैंकड़ों कारणों से विणओपडंजियलो - विनय करना चाहिए विणओ वि तवो - विनय भी तप है, तवो वि धम्मो - तप भी धर्म है, तम्हा - इसलिए, विणंओ पउजियव्वोविनय करना चाहिए, गुरुसु साहुसु तवस्सीसु - गुरु, साधु और तपस्वियों का, विणएण - विनय करने से, भाविओ - भावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, णिच्चं - सदैव, अहिगरण-करणकारावणपावकम्मविरए - अधिकरण रूप पाप के करने व कराने से विरत होता है, दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई- दत्त और अनज्ञात अवग्रह में रुचि वाला। भावार्थ - साधर्मिक विनय रूप पांचवीं भावना है। साधर्मिक साधुओं का विनय करे, ज्ञानी तपस्वी एवं ग्लान साधु का विनय एवं उपकार करने में तत्पर रहे। सूत्र की वाचना तथा परावर्तना करते समय गुरु का वन्दन रूप विनय करे। आहारादि दान प्राप्त करने और प्राप्त दान को साधुओं को देने तथा सूत्रार्थ की पुनः पृच्छा करते समय गुरु महाराज की आज्ञा लेने एवं वन्दना करने रूप विनय करे। उपाश्रय से बाहर जाते और प्रवेश करते समय आवश्यकी तथा नैषेधिकी उच्चारण रूप विनय करे। इसी प्रकार अन्य अनेक सैंकड़ों कारणों (अवसरों) पर विनय करता रहें मात्र अनशनादि ही तप नहीं है, किन्त विनय भी तप है। केवल संयम ही धर्म नहीं. किन्त तप भी धर्म है। इसलिए गरु साध और तपस्वियों का विनय करता रहे। इस प्रकार सदैव विनय करते रहने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गति के कारण ऐसे पापकृत्यों के करने-कराने रूप पापकर्म से रहित होती है। इससे दत्तअनुज्ञात पदार्थ को ग्रहण करने की रुचि होती है। उपसंहार एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ, सुप्पणिहियं, इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणंतं य एस जोगो णेयव्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अछिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्व जिणमणुण्णाओ। शब्दार्थ - एवमिणं - ऐसा करने से, संवरस्स दारं - संवर-द्वार का, सम्म - भली-भांति, संवरियंपालन करना, होइ - होता है, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित-सुरक्षित, इमेहिं - इन, पंचहिं - पांच, कारणेहिंकारणों से, मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया द्वारा रक्षण करना, णिच्चं - सदैव, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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