Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 274
________________ ____ आराधक की वैयावृत्य विधि 257 ******** ************************* __ आराधक की वैयावृत्य विधि अह केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं? जे से उवहि-भत्त-पाण-संगहण-दाणकुसले-अच्चंतबाल-दुब्बल-गिलाण-वुड्ड-खवग-पवत्ति-आयरिय-उवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सी-कुल-गण-संघ-चेइयढे य णिज्जरट्ठी वेयावच्चं अणिस्सियं दसविहं बहुविहं करेइ, ण य अचियत्तस्सगिहं पविसइ, ण य अचियत्तस्स गिण्हइ भत्तपाणं, ण य अचियत्तस्स सेवइ पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पाय-कंबल-दंडगरयहरण-णिसिज्ज-चोलपट्टय-मुहपोत्तियं पायपुंछणाइ-भायण-भंडोवहिउवगरणं ण य परिवायं परस्स जंपइ, ण यावि दोसे परस्स गिण्हइ पर ववएसेण वि ण किंचि गिण्हइ ण य विपरिणामेइ किंचि जणं ण यावि णासेइ दिण्णसुकयं दाऊणं य ण होइ पच्छाताविए संभागसीले संग्गहोवग्गहकुसले से तारिसए आराहए वयमिणं। शब्दार्थ - अह - अब, केरिसए - कैसा साधु, पुणाई - फिर, आराहए - आराधना, वयमिणं - इस व्रत की, जे - जो, उवहि-भत्त-पाण-संगहण-दाण-कुसले - उपधि ग्रहण करने और आहारपानी का संग्रह तथा संविभाग करने में कुशल, अच्चंतबाल दुब्बल गिलाण वुड्ड खवग - अत्यन्त दुर्बल, बालक, ग्लान, वृद्ध, क्षपक-उत्कट तपस्वी, पवत्ति-आयरिय-उवज्झाए - प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय, सेहे - शैक्ष-नवदीक्षित, साहम्मिए - साधर्मिक, तवस्सी - तपस्वी, कुल - कुल, गण - गण, संघसंघ, चेइयढे - ज्ञान के लिए अथवा चित्त की शांति के लिए, य - और, णिज्जरट्ठी - निर्जरा के लिए, वैयावच्चं - वैयावृत्य, अणिस्सियं - कीर्ति आदि की इच्छा से रहित, दसविहं - दस प्रकार की, बहुविहंबहुत प्रकार की, अचियत्तस्स - अप्रतीतकारी, गिहं - घर में, ण पविसइ - प्रवेश नहीं करता, भत्तपाणंआहार पानी, गिण्हइ - ग्रहण करना, पीढ - पीठ, फलग - फलक, सिज्जा - शय्या, संथारग - संस्तारक, वत्थ - वस्त्र, पाय - पात्र, कंबल - कम्बल, दंडग - दण्डक, रयहरण - रजोहरण, णिसिजनिषद्या-आसन, चोलपट्टय - चोलपट्टा, मुहपोत्तिय - मुंहपत्ति, पायपुंछणाइ - पादपोंछन, भायण - भाजन, भंडोवहिउवगरणं - भण्ड, उपधि और उपकरणों का, ण सेवइ - सेवन नहीं करता, परिवायं - परिवाद, परस्स - दूसरों का, ण जंपई - नहीं कहता, दोसे - दोषों को, परववएसे ण - दूसरों के बहाने से, ण विपरिणामेइ - विमुख नहीं करता, दिण्णसुकयं - दान और सुचारित्र को, ण णासेइ - नहीं छिपाता, दाऊण - देकर या वैयावृत्य करके, पच्छाताविए - पश्चात्ताप, संभागसीले - यथायोग्य विभाग करने वाला, संग्गहोवग्गहकुसले - योग्य शिष्यों का संग्रह करने, भात-पानी देने में और शास्त्राध्ययन कराने में कुशल, तारिसए - इस प्रकार का, से - वह, आराहय - आराधना, वयमिणं - व्रत की। भावार्थ - कैसा साधु इस तीसरे महाव्रत की आराधना कर सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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