________________ अस्तेय का स्वरूप 253 ***** **************************************************** ण कप्पइ उग्गहम्मि अदिण्णम्मि गिहिउंजे, हणि हणि उग्गहं अणुण्णविय गिण्हियव्वं वज्जेयव्वो सव्वकालं अचियत्तघरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढ-फलग-सिजा संथारग-वत्थ-पत्त-कंबल-दंडग-रयहरण-णिसिज-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाइ भायण-भंडोवहि-उवगरणं परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेणं जं च गिण्हइ परस्स णासेइ जांच सुकयं दाणस्स य अंतराइयं दाणविप्पणासो पिसुण्णं चेव मच्छरियं च। शब्दार्थ - जं - जो, हुजाहि - पड़ी हो, दव्वजायं - वस्तु, खलगयं - खलिहान में, खेत्तगयं - खेत में, रण्णमंतरगयं - वन में, वा - अथवा, पुष्फ-फल-तयप्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ट-सक्कराइ- . फूल, फल, वृक्ष की छाल, प्रवाल, कंद, मूल, तृण, काष्ठ और कंकर आदि, अप्प - अल्पमूल्य की, बहुबहुमूल्य की, अणुं - छोटी, थूलगं - बड़ी, ण कप्पइ - नहीं कल्पती, उग्गहम्मि - अपने अवग्रह में-. उपाश्रय में भी, अदिण्णम्मि - बिना दी हुई, गिहिउं - ग्रहण करना, हणि हणि - प्रतिदिन, उग्गहं - गृहस्थ की, अणुण्णविय - आज्ञा लेकर, गिहियव्वं - ग्रहण करना, वज्जेयव्यो - वर्जना चाहिए, सव्वकालं - सदा, अचियत्तंघरप्पवेसो - अप्रतीतकारी घर में प्रवेश करना, अचियत्तभत्तपाणं - अप्रतीतकारी घर से आहार पानी, अचियत्तपीढफलग सिजा-संथारग वत्थ-पत्त-कंबल-दंडगरयहरणणिसिज्ज-चोलपग-महपोत्तियपाय-पंछणाड - अप्रतीतकारी घर से पीढ. फलक. शय्या. संस्तारक, वस्त्र, पात्र कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टा, मुंहपत्ति और पादपोंछन, भायणभंडोवहि-उवगरणं - भाजन, भण्डोपकरण और उपधि, परपरिवाओ - परपरिवाद-दूसरों की निंदा, परस्स - दूसरे के, दोसो - दोषों का, परववएसेणं - परनिमित्त, ण गिण्हइ - ग्रहण न करे, परस्स - दूसरे के, णासेई- छिपाना, सुकर्य-सुकृत, दाणस्स-दान में, अंतराइयं - अन्तराय देना, दाणविप्पणासोदान का अपलाप करना, पिसुणं - चुगली करना, मच्छरियं - मात्सर्य करना-ईर्षा करना। भावार्थ - साधु को ग्रामानुग्राम विचरते हुए कहीं खेत में खलिहान में अथवा वन में-फूल, फल, / वृक्ष की छाल, प्रवाल (अंकुर) कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और कंकर आदि कुछ भी वस्तु पड़ी हो। वह अल्प हो या अधिक, अल्प मूल्य वाली हो या बहुमूल्य हो, छोटी हो या बड़ी, बिना गृहस्थ के दिये (अथवा गृहस्थ की आज्ञा के बिना) ग्रहण करना नहीं कल्पता है, भले ही वह वस्तु अपने अंवग्रह (उपाश्रय) में हो। साधु को आवश्यक ग्राह्य वस्तु प्रतिदिन गृहस्थ की आज्ञा लेकर ही ग्रहण करनी चाहिए। साधु के लिए अप्रतीतिकारक घर में प्रवेश करना सदैव वर्जनीय है और ऐसे अप्रतीतिकारक घर से आहार, पानी, पीढ़, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टक, मुंहपत्ती, पादपोंछन, भाजन, भण्डोपकरण और उपधि आदि कुछ भी नहीं लेना चाहिए। साधु को दूसरों की निंदा नहीं करनी चाहिए और दूसरे के दोषों को किसी से कहना भी नहीं चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org