________________ 252 ******* प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०३ ********************************************* विमुक्त-लोभ रूपी बन्धन से रहित है। यह अदत्त-त्याग महाव्रत, केवल सामान्यजनों द्वारा ही आचरित नहीं, अपितु उत्तम नर-वृषभ (जिनेश्वर भगवंत) बलवान् (चक्रवर्त्यादि) एवं श्रेष्ठ महापुरुषों तथा साधुजनों द्वारा सम्मान्य है तथा परम साधु-सन्त महानुभावों का उत्तम धर्माचरण है। विवेचन - दूसरे महाव्रत का पालन एवं रक्षण तभी हो सकता है जबकि अदत्तत्याग रूप तीसरा महाव्रत का पालन किया जाये। अदत्तग्राही को असत्याचरण भी करना पड़ता है। अतएव अदत्त-त्याग के लिए सूत्रकार ने तीसरे महाव्रत का विधान किया है। दत्तानुज्ञात व्रत का अर्थ-स्वामी द्वारा हाथ से दिया हुआ और लेने की अनुज्ञा प्राप्त वस्तु है। अनुज्ञात-आज्ञा में स्वामी की आज्ञा के अतिरिक्त देवाज्ञा-आगमाज्ञा का समावेश भी किया जाता है। . जत्थ य गामागर-णगर-णिगम-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-संबाह-पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-कंस-दूस-रयय-वरकणग-रयणमाइं पडियं पम्हुटुं विप्पणटुं ण कप्पइ कस्सइ कहेउं वा गिहिउँ वा अहिरण्णसुवणियेण समलेट्टकंचणेणं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगम्मि विहरियव्वं। .. शब्दार्थ - जत्थ - जहाँ कहीं, गामागर-णगर-णिगम-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-संबाहपट्टणासमगयं - ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, संबाध, पत्तन और आस्रव / .आदि स्थानों में, किंचिवि - कुछ भी, दव्वं - द्रव्य, मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-कंस-दूस-रययवरकणगरयणमाई - मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, पीतल, चांदी, सोना तथा रत्न आदि पडियं - पड़े हों, पम्हुटुं - उसका स्वामी भूल गया हो, विप्पणटुं - खोज करने पर भी उसे मिली न हो, तो वह वस्तु, ण कप्पइ - नहीं कल्पती, कस्सइ - किसी को, कहेउं - कहना, गिहिउ - ग्रहण करना, अहिरण्णसुवण्णियेण - हिरण्य और सुवर्ण के त्यागी होकर, समलेट्टकंचणेणं - मिट्टी और सोने को समान समझने वाले, अपरिग्गह संवुडेणं - परिग्रह-रहित और गुप्तेन्द्रिय होकर, लोगम्मि - लोक में, विहरियव्वं - विचरना चाहिए। . __भावार्थ - जहाँ कहीं ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, संबाध, पत्तन और आश्रम में मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, चांदी, सोना और रत्नादि कुछ भी द्रव्य पड़ा हो, उस वस्तु का स्वामी भूल गया हो या उसके खोजने पर भी नहीं मिली हो, तो उस वस्तु के विषय में किसी को कहना अथवा स्वयं ग्रहण करना साधु के लिए अकल्पनीय-अकृत्य है। साधु, चांदी-सोना आदि का त्यागी होता है। उसे मिट्टी और सोने को समान समझ कर तथा निष्परिग्रही एवं संवृत रहकर लोक में विचरना चाहिए। / जं वि य हुज्जाहि दव्वजायं खलगयं खेत्तगयं रण्णमंतर-गयं वा किंचि पुप्फफल-तयप्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठ-सक्कराइ अप्पं च बहुं च अणुं च थूलगं वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org