________________ 248 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 2 असंतगाई - असद्भूत, जंपंति - बोलता है। हासइत्ता - हास्यकारी, परपरिभवकारणं - दूसरे के अपमान का कारण होता है, परपरिवायप्पियं - पर-परिवादप्रिय है, परपीलाकारगं - पर-पीड़ा का कारण बनता है, भेयविमुत्तिकारगं - साधु के चारित्र का नाश करने का कारण, अण्णोण्णजणियं होज - परस्पर-ठट्टा मजाक करने से उत्पन्न, हासं - हास्य, अण्णोण्णगमणं - परस्पर की गुप्त बातें, य - और, मम्मं - मर्म, होज - प्रकट होते हैं, अण्णोण्णगमणं - परस्पर गमन सम्बन्धी, कम्मं - निंदितकर्म, कंदप्पाभियोगगमणं - कान्दर्पिक और आभियोगिक में गमन, आसुरियं - असुर जाति के देवों में, किष्विसत्तणं - किल्विषी देवों में, तम्हा - इसलिए, हास - हास्य का, ण सेवियव्वं - सेवन नहीं करना, एवं - इस प्रकार मोणेण - मौन से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणो - हाथ, पैर, नेत्र और मुख के संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न। भावार्थ - पांचवीं भावना हास्य का त्याग है। इसलिए दूसरे महाव्रत के पालक को चाहिए कि वह हास्य (हँसी) नहीं करे। हँसी करने वाला मनुष्य मिथ्या और असत्य-भाषण करता है। हँसी, दूसरे ..व्यक्ति का अपमान करने में कारणभूत बन जाती है। पराई निन्दा करने में रुचि रखने वाले भी हँसी का अवलम्बन लेते हैं। हंसी, दूसरों के लिए पीड़ाकारी होती है। हँसी से चरित्र का भेदन (विनाश) होता है। हंसी एक दूसरे के मध्य होती है और हँसी-हंसी में परस्पर की गुप्त बातें प्रकट होती हैं। एक दूसरे, के गर्हित कर्म प्रकट होते हैं। हँसी करने वाला व्यक्ति कान्दर्पिक और आभियोगिक भाव को प्राप्त होकर वैसी गति का बन्ध करता है। हँसोड़ मनुष्य आसुरी एवं किल्विषी भाव को प्राप्त कर वैसे देवों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार हास्य को अहितकारी जानकर त्याग करना चाहिए। मौन के द्वारा हास्य का त्याग करना चाहिए। इससे अन्तरात्मा पवित्र होती है। ऐसे साधक के हाथ पांव, नेत्र और मुख संयमित रहते हैं। वह हास्य-त्यागी शूरवीर, सच्चाई और सरलता से सम्पन्न होता है। विवेचन - हंसी भी सत्य-महाव्रत को नष्ट करने वाली है। इसलिए शास्त्रकार पांचवीं भावना में हँसी का त्याग करने का उपदेश करते हैं। भेयविमुत्तिकारगं - इसका अर्थ किया है - चारित्र का भेदन (विनाश) तथा निस्पृहता का लुप्त होना तथा 'विमूर्ति'-विकृतनयनवदनादित्वेन विकृतशरीराकृतिः तद्भेदकारकं हास्यं (हास्य से मुख-नेत्र आदि शरीर की आकृति विकृत हो जाती है) अथवा 'उपहासेन संग्रामोजात इति सम्प्रदायः" - उपहास से ऐसा भेद भी उत्पन्न हो जाता है कि जिससे संग्राम तक छिड़ जाता हैऐसा अर्थ भी करते हैं। 'भेद विमुक्ति कारक' का अर्थ-हँसी के परिणामस्वरूप मैत्री-सम्बन्धी भी टूट जाते हैं-भी हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org