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. बलदेव और वासुदेव के भोग
१६३ ********** ********************************************** हैं, थिमिय णिव्युयपमुइयजण - प्रजाजन निश्चिन्त, प्रमुदित एवं आनन्दित है, विविहसासणिप्फज्जमाणमेइणिसर-सरिय-तलाग-सेल - विविध प्रकार के धान्य उत्पन्न करने वाली भूमि, जलाशय, नदी, तालाब, पर्वत, काणणआरामुजाणमणा-भिरामपरिमंडियस्स - वन, बाग, उद्यान आदि मनोहर एवं उत्तम रीति से सज्जित हैं, दाहिणड्डवेयडगिरिविभत्तस्स - जो वैताढ्य पर्वत से होकर दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध के रूप में विभक्त है, लवणजलहिपरिगयस्स- जो लवण समुद्र से घिरा हुआ है, छव्विहकालगुणकामजुत्तस्स - जहाँ छह प्रकार की ऋतुएँ क्रमश: कालानुसार कार्ययुक्त अथवा शब्दादि कामसुख से युक्त हैं, अद्धभरहस्स सामिगा- वे आधे भरतक्षेत्र के स्वामी थे, धीरकित्ति-पुरिसा- वे कीर्ति से सुशोभित, धीर पुरुष थे, ओहबला - वे ओघबल-प्रवाह रूप से अविच्छिन्न-स्थायी बल वाले थे, अइबला - अति बलवान्, अणिहया - किसी के द्वारा आहत नहीं होने वाले, अपराजियसत्तुमद्दणरिपुसहस्समाणमहणा - वे शत्रुओं से पराजित नहीं होने वाले और सहस्रों शत्रुओं के मान का मर्दन करने वाले थे। . भावार्थ - (चक्रवर्ती के सिवाय) बलदेव और वासुदेव भी बड़े प्रख्यात एवं उत्तम पुरुष हुए हैं। वे महाबली एवं महापराक्रमी थे। प्रबल एवं दृढ़तम धनुष्य को खींचकर चढ़ाने वाले थे। समुद्र के समान महान् सत्वशाली, धनुर्विधा में अप्रतिम (अजोड़) धनुर्धर थे। वे नर-वृषभ राम (बलदेव) और केशव (वासुदेव श्री कृष्ण) दोनों भाई थे। उनका परिवार भी बहुत था। वसुदेव और समुद्रविजय आदि दस दशा) तथा प्रद्युम्न, प्रतिव, शाम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उल्मक, सारण, गज, सुमुख और दुर्मुख आदि साढ़े तीन कोटि यादव-कुमारों को अत्यन्त प्रिय थे। रोहिणी देवी (बलदेवजी की माता) देवकी देवी (कृष्णजी की माता) के हृदय में आनन्द की वृद्धि करने वाले थे। सोलह हजार राजा जिनके अनुगामी (अनुसरण करने वाले) थे। सोलह हजार रानियों के जो प्राणवल्लभ एवं नयनों के तारे थे। उनका भण्डार विविध प्रकार के. मणि, कनक, रत्न, मोती, प्रवाल तथा धन-धान्य से परिपूर्ण था। हजारों हाथियों, घोड़ों और रथों के वे स्वामी थे। हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम और संबाध पर उनका राज्य था, जिनमें प्रजानन सुख-सन्तोष एवं आनन्दपूर्वक निवास करते थे। उनके राज्य की भूमि में विविध प्रकार का धान्य उत्पन्न होता था। नदी, तालाब, पर्वत, वन, बाग, उद्यान आदि पाकृतिक मनोहर सामग्रियों से उनकी भूमि सुसज्जित थी। वैताढ्य पर्वत से दो विभागों (उत्तर और दक्षिण) में विभाजित हुआ ऐसा दक्षिण भरत-क्षेत्र जो लवण समुद्र से घिरा हुआ है
और जिसमें कालक्रम से छहों ऋतुएं अपने काम-गुण से सम्पन्न होकर कार्यरत हैं, ऐसे आधे भरत-क्षेत्र के वे (राम और केशव) स्वामी थे। वे धीर-वीर थे। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी-वे कीर्ति पुरुष थे। उनका बल सदा स्थायी रहता था। वे बहुत बलवान् थे। उन्हें दबाने वाला कोई नहीं था (उन पर किसी . की आज्ञा नहीं चल सकती थी) वे अपराजित (किसी से पराजित नहीं होने वाले) थे। वे हजारों शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाले थे।
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