________________ *********** आस्रवों का उपसंहार 203 ************************************************ किं सक्का काउं जे, णेच्छह ओसहं मुहा पाउं। जिणवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं॥४॥ शब्दार्थ - किं - कैसे, सक्का - समर्थ हो सकती है, काउं - उनके दुःखों को दूर करने में, णेच्छह - नहीं चाहते हैं, ओसहं - औषधि, मुहा - नि:स्वार्थ भाव से दी जाने वाली, पाउं - पीना, जिणवयणं - तीर्थंकर भगवान् के वचन रूप, गुणमहुरं - गुणों में मधुर, विरेयणं सव्वदुक्खाणं - समस्त दुःखों को दूर करने वाली। भावार्थ - जो रोगी, वैद्य की दवा नहीं लेना चाहता, उसकी व्याधि दूर नहीं हो सकती, इसी प्रकार जो तीर्थंकर भगवान् के वचन रूपी औषध का सेवन नहीं करते, उनका भवभ्रमण रूप दुःख दूर नहीं सकता॥४॥ पंचेव य उज्झिऊणं, पंचेक्य रक्खिऊणं भावेणं। कम्मरय-विप्पमुक्कं, सिद्धिवर-मणुत्तरं जंति॥५॥ शब्दार्थ - पंचेव - इन पाँच का, उज्झिऊणं - त्याग करके, य - और, पंचेव - आगे कहे जाने वाले पांच संवर द्वारों का, भावेणं - भावपूर्वक, रक्खिऊणं - पालन करके, कम्मरयविप्पमुक्कं - कर्म-रज से रहित, सिद्धिवरं - उत्तम सिद्धगति, अणुत्तरं - सर्वश्रेष्ठ, जंति - प्राप्त करते हैं // 5 // भावार्थ - इन पाँच आस्रवद्वारों का त्याग करके और आगे कहे जाने वाले पाँच संवरद्वारों का भावपूर्वक पालन करके जीव, कर्मर ज से रहित होकर सर्वश्रेष्ठ उत्तम सिद्ध गति को प्राप्त करते ॥आस्त्रव द्वार समाप्त॥ - यहाँ तक प्रश्नव्याकरण सूत्र के पाँचों आस्रवद्वार और उसके दुःखद फल-विपाक का स्वरूप बंतला कर सूत्रकार ने आस्रव का त्याग करके आगे कहे जाने वाले संवर का सेवन करने का उपदेश किया है। .. ॥आस्त्रव द्वार नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org