________________ . तृतीय भावना-वचन-समिति . 225 . ***** * ********************* ******************** किंचि वि झायव्वं / एवं मणसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। शब्दार्थ - बिइयं - दूसरी, मणेण - मन से, पावएणं - पापकारी, पावगं - पापयुक्त विचार, अहम्मियं - अधार्मिक, दारुणं - दारुण, णिस्संसं - नृशंस, वहबंधपरिकिलेसबहुलं - प्राणियों का वध, बन्धन, अत्यंत परिताप, भयमरणपरिकिलेससंकिलिट्ठ - भय, मरण और क्लेश इत्यादि हिंसा सम्बन्धी, ण कयावि - कदापि नहीं, मणेण - मन से, पांवएणं - पापकारी, पावगं - पापयुक्त विचार नहीं करे, किंचि वि - किंचित् मात्र भी, ण झायव्वं - चिंतन नहीं करना, एवं - इस प्रकार, मणसमिइजोगेणं - मन समिति के व्यापार से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा - असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और . अखंडित होता है, अहिंसए - अहिंसक, संजए - संयमधारी, सुसाहू - उत्तम साधु / भावार्थ - अहिंसा महाव्रत की दूसरी भावना 'मन-समिति' है। साधु, अपने मन को पापकारीकलुषित बनाकर पापी विचार नहीं करे, न मलिन मन बनाकर अधार्मिक, दारुण एवं नृशंसता पूर्ण विचार करे, तथा वध-बन्धन और परितापोत्पादक विचारों में लीन भी नहीं बने। जिनका परिणाम भय, क्लेश और मृत्यु है-ऐसे हिंसा युक्त पापी विचारों को अपने मन में किञ्चित् मात्र भी स्थान नहीं दे। ऐसा पापी ध्यान कदापि नहीं करे। इस प्रकार मन समिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित-पवित्र होती है। ऐसी विशुद्ध मन वाली आत्मा का चारित्र और भावना निर्मल-विशुद्ध तथा अखण्डित होती है। वह साधु अहिंसक, संयमी एवं मुक्ति साधक होता है। उसकी साधुता उत्तम होती है। . * विवेचन - मन को हिंसाकारी पाप-पूर्ण विचारों से कलुषित नहीं करना। यह अहिंसा महाव्रत की. दूसरी भावना है। मन-समिति का पालन करने से भाव अहिंसकता आती है। बिना मन-समिति के भाव-अहिंसकता एवं भाव-संयम नहीं होता। शरीर और वचन से अहिंसा का पालन करते हुए भी यदि मन में हिंसा के परिणाम हों, तो वह द्रव्य-अहिंसक, द्रव्य-संयमी या द्रव्य-महाव्रती होगा। उसकी मानसिक पापी परिणति उसे स्वदया से वंचित रख कर पापकर्मों के बन्धन में बाँधती रहेगी। पापपूर्ण विचारों से अन्य प्राणियों की हिंसा तो नहीं होती, परन्तु खुद की आत्मा की हिंसा होती रहती है। पापपूर्ण विचार, खुद की आत्मा के लिए दुःखों का मूलारोपण है। मन-समिति के पालक की आत्मा उज्ज्वल, पवित्र एवं विशुद्ध होती। उसकी साधुता उत्तम है। वह मुक्ति के निकट होता रहता है। तृतीय भावना - वचन-समिति - तइयं च वइए पावियाए पावगं ण किंचिवि भासियव्वं। एवं वइ-समियजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा सबलमसंकिलिट्ठणिव्वण-चरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org