Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 248
________________ पंचमी भावना-आदान निक्षेपण समिति 231 Wwwwwwwwww w ************************************ शब्दार्थ - एवमिणं - इस प्रकार यह, संवरस्स दारं - संवर द्वार, संवरियं - सेवन किया हुआ, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित, होइ - होता है, इमेहिं - इन, पंचहिं - पाँच, कारणेहिं - कारणों से, मणवयकायपरिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया को गुप्त रखने रूप, णिच्चं - सदा, आमरणंतं - मरण पर्यन्त, एस - इस, जोगो - योग का, णेयव्यो - पालन करना, धिइमया - धैर्यवान्, मइमया - बुद्धिमान्, अणासवो - अनाश्रव, अकलुसो - पाप-रहित, अच्छिद्दो - छिद्र-रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश-रहित, सुद्धो- शुद्ध, सव्वजिणमणुण्णाओ - समस्त तीर्थंकरों द्वारा आज्ञापित।। - भावार्थ - इस प्रकार सम्यक् रूप से सेवन किया हुआ यह प्रथम संवर द्वारा सुरक्षित होता है। बुद्धिमान् और धैर्यवान् मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन, वचन और काया को सुरक्षित रखने के लिए सदैव इन पाँच कारणों (भावनाओं) से जीवनपर्यन्त इस अहिंसा योग का पालन करे। यह अनास्त्रव है, अकलुष, निष्पाप है। आश्रव रूपी छिद्र से रहित है। मानसिक संक्लिष्टता से वंचित है। यह शुद्ध है और सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित है। एवं पढमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तिरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ। एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं। ॥पढमं संवरदारं सम्मत्तं।त्तिबेमि॥ शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, पढमं - प्रथम, संवरदारं - संवरद्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियं - पालित, सोहियं - शोभित, तिरियं - अन्तिम ध्येय तक पहुँचाया, किट्टियं - कीर्तित, आराहियं - आराधित, आणाए - आज्ञा का, अणुपालियं - अनुपालित, भवइ - होता है, णायमुणिणा भगवयाज्ञात-कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने, पण्णवियं - कहा है, परूवियं - प्ररूपणा की है, पसिद्धंप्रसिद्ध, सिद्धं - प्रमाण संगत, सिद्धवरसासणमिणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवान् की प्रधान आज्ञा, आघवियं - सम्यक् प्ररूपण, सुदेसियं - भली प्रकार उपदेशित, पसत्यं - प्रशस्त, पढमं - प्रथम, संवरदारं - संवरद्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्तिबेमि- ऐसा मैं कहता हूँ। . भावार्थ - इस प्रकार पाँचों भावनाओं का पालन करने से प्रथम संवरद्वार स्पर्शित, पालित, शोभित (या शोधित) होता है, पार पहुंचाया जाता है, कीर्तित होता है, आराधित होता है और तीर्थंकर भगवान् की आज्ञानुसार पालित होता है। इस प्रकार ज्ञात-कुलोत्पन्न भगवान् महावीर ने कहा है, प्ररूपणा की है। जिनेश्वर भगवंतों का यह अहिंसा धर्म सिद्ध है, प्रसिद्ध है। कृतकृत्य ऐसे जिनेश्वर भगवान् ने इसकी आज्ञा दी है। यह भगवान् द्वारा प्ररूपित है, उपदेशित है। यह निग्रंथ प्रवचन प्रशस्त है। प्रथम संवर-द्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं कहता हूँ। ।।अहिंसा नामक प्रथम संवर द्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354