________________ . चतुर्थ भावना-आहारैषणा समिति 227 ************ * ************** ************** *********** रखता हुआ, जयण - संयम में प्रयत्नशील, घडणकरण - अप्राप्त गुणों की प्राप्ति के लिए उद्योग करने वाला, चरियविणयगुणजोगसंपउत्ते - विनय और क्षमा आदि गुणों से युक्त होकर, भिक्खू - साधु, भिक्खेसणाए - भिक्षा की गवेषणा के लिए, जुत्ते - प्रवृत्ति करे, समुदाणेऊण - सामुदानिक, भिक्खचरियं - भिक्षाचरी द्वारा, उंछं - थोड़ा-थोड़ा, घेत्तुण - ग्रहण करके, आगओ - अपने स्थान आया हुआ, गुरुजणस्स - गुरुजन के, पासं - पास, गमणागमणाइयारे - गमनागमन के अतिचारों की, पडिक्कमणपडिक्कंते - निवृत्ति के लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण, य - और, आलोयणदायणं - आहार पानी का क्रम दिखाना, दाऊण - दिखलाकर, गुरुजणस्स - गुरु महाराज के निकट, गुरुसंदिट्ठस्स - गुरु महाराज द्वारा आदेश दिए हुए गीतार्थ के पास, वा - अथवा, जहोवएसं - यथोपदेश, णिरइयारं - निरतिचार, अप्पमत्तो - प्रमाद रहित होकर, पुणरवि - फिर, अणेसणाए - अनेषणा जनित दोषों की निवृत्ति के लिए, पयओ - प्रयत्नपूर्वक, पडिक्कमित्ता - कायोत्सर्ग करना, पसंते - शान्त चित्त होकर, आसीणसुहणिसण्णे - सुखपूर्वक बैठे, मुहुत्तमित्तं - एक मुहूर्तमात्र, जाणसुहजोगणाणसल्झायगोवियमणे - ध्यान करे तथा शुभयोग का आचरण करे, एवं पूर्व पठित ज्ञान का चिंतन और . स्वाध्याय करे, धम्ममणे - मन को धर्म में स्थापित करे, अविमणे - विशाद का भाव नहीं आने दे, सुहमणे- शुभ मन-युक्त, अविग्गहमणे- कलह का भाव उत्पन्न न होने दे, समाहियमणे- समाधित मन वाला, सद्धासंवेगणिज्जरमणे - मन में धर्म की श्रद्धा, मोक्ष की अभिलाषा और निर्जरा की भावना करे, पवयणवच्छलभावियमणे - प्रवचन वत्सलता में मन को लगाता हुआ, य - और, पहठ्ठतुडे - अत्यन्त हर्ष एवं तुष्ठि के साथ, उट्ठिऊण - उठकर, जहारायणियं - यथारत्नाधिक (संयम में अपने से बड़े) साहवे-साधुओं को क्रमानुसार, णिमंतइत्ता-भोजनार्थ आमन्त्रित करे, भावओ-भावपूर्वक, विइण्णेउनकी इच्छानुसार देने के पश्चात्, गुरुजणेणं - गुरु की आज्ञा पाकर, उपविठू-उचित स्थान पर बैठ जाये। - भावार्थ - अहिंसा महाव्रत की चौथी भावना 'एषणा समिति' है। आहार की गवेषणा के लिए गृहसमुदाय में गया हुआ साधु, थोड़े-थोड़े आहार की गवेषणा करे। आहार के लिए गया हुआ साधु, अज्ञात रहता हुआ अर्थात् अपना परिचय नहीं देता हुआ, स्वाद में गृद्धता, लुब्धता एवं आसक्ति नहीं रखता हुआ गवेषणा करे। यदि आहार तुच्छ, स्वादहीन या अरुचिकर मिले, तो उस आहार पर या उसके देने वाले पर द्वेष नहीं लाता हुआ, दीनता, विवशता या करुणा भाव न दिखाता हुआ, समभावपूर्वक आहार की गवेषणा करे। यदि आहार नहीं मिले, कम मिले या अरुचिकर मिले, तो मन में विषाद नहीं लावे और अपने मन वचन और काया के योगों को अखिन्न-अखेदित रखता हुआ संयम में प्रयत्नशील रहे। अप्राप्त गुणों की प्राप्ति में उद्यम करने वाला एवं विनयादि गुणों से युक्त साधु भिक्षा की गवेषणा में प्रवृत्त होवे। सामुदानिक भिक्षाचरी से थोड़ा-थोड़ा आहार लाकर, अपने स्थान पर आया हुआ साधु, गुरुजन के समीप गमनागमन सम्बन्धी अतिचारों की निवृत्ति के लिए ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे। इसके बाद जिस क्रम से आहार-पानी की प्राप्ति हुई हो, उसकी आलोचना करे और आहार दिखावे। फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org