________________ H 220 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ० 1 **************************************************************** दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं - दस दोषों से मुक्त। ये दोष इस प्रकार हैं१. संकित - दोष की शंका होने पर लेना। 2. मक्षित - देते समय हाथ, आहार या भोजन का सचित्त पानी आदि से युक्त होना। 3. निक्षिप्त - सचित्त वस्तु पर रखी हुई अचित्त वस्तु देना। 4. पिहित - सचित्त वस्तु से ढकी हुई अचित्त वस्तु देना। 5. साहरिय-जिस पात्र में दूषित वस्तु हो, उसे पृथक् करके उसी बरतन से देना और साधु द्वारा लेना। 6. दायग - जो दान देने के लिए अयोग्य है, ऐसे बालक, अंधे, गर्भवती आदि के हाथ से लेना। 7. उन्मिश्र - मिश्र-कुछ कच्चा और कुछ पका आहारादि लेना। / 8. अपरिणत - जिसमें पूर्ण रूप से शस्त्र परिणत न हुआ हो। 9. लिप्त - जिस वस्तु के लेने से हाथ या पात्र में लेप लगे अथवा तुरन्त की लीपी हुई गीली भूमि को लांघते हुए देवे। 10. छर्दित - नीचे गिराते हुए देवे। इन दस दोषों को 'एषणा के दोष' कहते हैं। उग्गमउप्पायणेसणा सुद्धं - उद्गम के सोलह दोष, उत्पादन के सोलह दोष और एषणा के दस दोष। इन 42 दोषों से रहित शद्ध आहारादि। उद्गम के 16 दोष इस प्रकार हैं१. आधाकर्म - किसी साधु के निमित्त से आहार आदि बनाना। ......... 2. औद्देशिक - जिस साधु के लिए आहारादि बना है, उसके लिए तो वह आधाकर्मी है, किन्तु दूसरे के लिए वह औद्देशिक हैं। ऐसे आहार को दूसरे साधु लें अथवा अन्य याचकों के लिए बनाए हुए आहार में से या फिर अपने लिए बनते हुए आहार में साधुओं के लिए भी सामग्री मिला कर बनाया हो। 3. पूतिकर्म - शुद्ध आहारादि में आधाकर्मी आदि दूषित आहारादि का कुछ अंश मिलाना। 4. मिश्रजात - अपने और साधुओं-याचकों के लिए एक साथ बनाया हुआ। 5. स्थापना - साधु को देने के लिए अलग रख छोड़ना। 6. पाहुडिया - साधु को अच्छा आहार देने के लिए मेहमान अथवा मेहमानदारी के समय को आगे-पीछे करना। 7. प्रादुष्करण - अंधेरे में रखी हुई वस्तु को प्रकाश में ला कर देना। 8. क्रीत - साधु के लिए खरीद कर देना। 9. प्रामीत्य - उधार लेकर साधु के देवे।। 10. परिवर्तित - साधु के लिए अदल-बदलकर ली हुई वस्तु। 11. अभिहत - साधु के लिए वस्तु को अन्यत्र अथवा साधु के सामने ले जाकर देना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org