Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 235
________________ 218 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 1 अप्रावृत्तक - वस्त्ररहित खुले शरीर से शीत, उष्ण, दंशमशकादि परीषह सहने वाले। अनिष्ठीवक - मुंह में आये पानी को नहीं थूकने वाले। अकण्डूयक - खाज नहीं खुजलाने वाले। धुर्त-केश-श्मश्रु-लोम-नख-असंस्कारक - शरीर के अंगोपांग, दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल / और नख आदि को शोभित नहीं करने वाले। समस्त गात्र प्रतिकर्म विमुक्त - समस्त शरीर एवं अंगोपांग की शोभा शुश्रूषा से रहित जीवन वाले। षड्विध जगत्वत्सल - पृथिवी कायादि छहकाय जीवों के हितैषी। . . इस प्रकार शरीर से निरपेक्ष रह कर, संयम एवं तप की साधना में तत्पर और स्वाध्याय ध्यान में . रत रहने वाले महात्माओं ने, भगवती अहिंसा का सेवन किया है। आहार की अहिंसक-निर्दोष विधि इमं च पुढविदगअगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावरसव्वभूयसंजम दयट्ठयाएं सुद्धं उंछं गवेसियव्वं अकयमकारियमणाहूयमणुद्दिटुं अकीयकडं णवहिं य कोडिहिं सुपरिसुद्धं दसहिं य दोसेहिं विप्यमुक्कं उग्गमउप्यायणेसणासुद्धं ववगयचुयचावियचत्तदेहं च फासुयं च ण णिज्जकहापओयणक्खासुओवणीयं ति ण तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकज्जहेडं ण लक्खणुप्पायसुमिणजोइसणिमित्तकहकप्पउत्तं, ण वि डंभणाए, ण वि रक्खणाए, ण वि सासणाए, ण वि डंभण-रक्खण-सासणाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि वंदणाए, ण वि माणणाए, ण वि पूयणाए, ण वि वंदण-माणण-पूयणाए भिक्खं गवेसियव्वं / शब्दार्थ - इमं - इस, पुढविदगअगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावरसव्यभूयसंयमदयट्ठाए - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा ऋस और स्थावर, सभी प्राणियों के प्रति संयम और दया करने के लिए साधु को, सुद्धं - शुद्ध, उञ्छं - भिक्षा, गवेसियव्वं - गवेषणा करना, अकयं - अकृत अर्थात् जो आहार साधु के लिए न बनाया गया हो, अकारियं - न अन्य से बनवाया गया हो, अणाहूयं - निमंत्रण देकर नहीं बुलाया हो, अणुदिटुं - उद्देशिक न हो, अकीयकडं - साधु के निमित्त खरीदा हुआ नहीं हो, ण्वहिं - नौ, कोडिहिं - कोटियों से, सुपरिसुद्धं - शुद्ध, दसहिं - दस, दोसेहिं - दोषों से, विप्पमुक्कं - रहित, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं - उद्गम उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित शुद्ध आहार, ववगयचुयचावियचत्तदेहं - जिसके जीव स्वयं अथवा पर के द्वारा चव गये हैं, फासुयं - प्रासुक, णिसंग्जकहापओयणक्खासुओवणीयं - साधु गृहस्थ के घर आसन पर बैठकर धर्मोपदेश का कार्य करके एवं कहानी आदि कहकर दाता का चित्त प्रसन्न करके, ण- नहीं लेवे, तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकहेउं - आहार प्राप्ति के लिए चिकित्सा कर्म, मन्त्र-प्रयोग और औषध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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