________________ आहार की अहिंसक-निर्दोष विधि 221 ************************************************************* 12. उद्भिन्न - बरतन का लेप, छांदा आदि खोलकर देवे। ... 13. मालापहृत - ऊंचे माल पर नीचे भूमिगृह में तथा तिरछे, ऐसी जगह वस्तु रखी हो कि जहाँ से निसरणी आदि पर चढ़ना पड़े। 14. अच्छेद्य - निर्बल से छिनकर देना। 15. अनिसष्ठ - भागीदारी की वस्तु, किसी भागीदार की बिना इच्छा के दी जाये। 16. अध्यवपूरक - साधुओं का ग्राम में आगमन सुनकर बनते हुए भोजन में कुछ सामग्री बढ़ाना। ... उत्पादन के 16 दोष- 1. धात्री-कर्म- बच्चे की साल-संभाल करके अथवा धाय की नियुक्ति करवा कर आहारादिलेना। 2. दूती-कर्म - एक का सन्देश दूसरे को पहुँचा कर आहारादि लेना। 3. निमित्त - भूत, भविष्य और वर्तमान के शुभाशुभ निमित्त बताकर लेना। 4. आजीव- अपनी जाति अथवा कुल आदि बता कर लेना। ५.वनीपक-दीनता प्रकट करके लेना। ... 6. चिकित्सा - औषधी करके या बताकर लेना। 7. क्रोध- क्रोध करके लेना। 8. मान- अभिमानपूर्वक लेना। 9. माया - कपट का सेवन करके लेना। 10. लोभ - लोलुपता से अच्छी वस्तु अधिक लेना। 11. पूर्वपश्चात् संस्तव - आहारादि लेने के पूर्व या बाद में दाता की प्रशंसा करना। 12. विद्या- चमत्कारिक विद्या का प्रयोग करके लेना। 13. मन्त्र-मन्त्र-प्रयोग से आश्चर्य उत्पन्न करके लेना। 14. चूर्ण - चमत्कारिक चूर्ण का प्रयोग करके लेना। ...15. योग- योग के चमत्कार बताकर लेना। 16. मूल कर्म- गर्भ-स्तंभन, गर्भाधान अथवा गर्भपात जैसे पापकारी औषधादि बताकर प्राप्त करना। .मूलकर्म - अति गहन भव-वन में भटकने का मूल कारण। गर्भस्तम्भन, गर्भाधान, गर्भपात गर्भ आदि विशेष पापकारी औषधादि बताना। यथा - "अति गहन भववनस्यमूलं कारणं सावधक्रिया मूलकर्म, तत्र गर्भस्थंभन-गर्भाधान-गर्भपातगर्भशात-उत्क्षिप्तयोनित्वकरणादिना उपाय॑तेपिण्डः।" / मूलकर्म - वृक्ष-लतादि से औषध-प्रयोग बतला कर आहार लेना। ण वि हीलणाए ण वि शिंदणाए ण वि गरहणाए ण वि हीलणणिंदणगरहणाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि भेसणाए ण वि तज्जणाए ण वि तालणाए ण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org