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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०४ **************************************
********** समिद्धरायकुलसेवियाहिं कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूववसवासविसदगंधुद्धयाभिरामाहिं चिल्लिगाहिं उभओपासं वि चामराहिं उक्खिप्पमाणाहिं सुहसीययवायवीइयंगा।
शब्दार्थ - तेहि - वे, अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पभेहिं - छत्र की शलाकाएं अविरलसघन एवं उन्नत थीं और वह छत्र गोल होने से चन्द्रमण्डल के समान सुशोभित था, सूरमिरीयकवयं विणिम्मुयतेहिं - छत्र की किरणें सूर्य की किरणों के समान थीं तथा उनके कवचों के चारों ओर प्रसरती थीं, सपडिदंडेहिं - वे छत्र प्रति-दण्डों से युक्त थे-उन्हें धारण करने के लिए दण्ड लगे हुए थे, आयवत्तेहिं - छत्रों से, धरिग्जंतेहि - धारण किये हुए, विरायंता - विराजमान थे, ताहि य - इस प्रकार, पवरगिरिकुहरविहरणसमुट्ठियाहिं - वे चंवर, पर्वत तथा कन्दराओं में विचरण करने वाली गायों के बालों से बने थे, णिरुवहयचमरपच्छिमसरीरसंजायाहिं - वे चंवर नीरोग चंवरी गायों के पूँछ के बालों से बने थे, अमइलसेयकमल-विमुकुलजलियरययगिरिसिहरविमलससिकिरणसरिसकलहोयणिम्मलाहिं - वे चंवर निर्मल श्वेत कमल, रजतगिरि के उज्ज्वल शिखर, चन्द्रमा की किरण तथा चाँदी के समान निर्मल थे, पवणाहयचवलचलियसललियपणच्चियवीइपसरियखीरोदगवपरसागरुप्पूरचंचलाहिं - वे हिलाये जाते हुए चँवर ऐसे लगते थे कि जैसे वायु से प्रेरित चपलता से चलती हुई तरंगों से युक्त विशाल क्षीर समुद्र का जल प्रवाह हो, माणससरपसरपरिचियावासविसदवेसाहिं - मानसरोवर में निरन्तर निवास करने वाली और श्वेत वेश वाली, कणगगिरिसिहरसंसिताहिं - कनकगिरि के शिखर पर रहने वाली, उवायप्पायचवलजयिणसिग्यवेगाहिं - ऊपर उठने और नीचे आने में चपलता-जनित शीघ्र-गति वाली हंसवधूयाहिं - हंस वधुओं के, चेव - समान, कलिया .- युक्त, णाणामणिकणगमहरहितवणिजुज्जलविचित्तडंडाहिं - उन चंवरों का स्वर्णमय दण्ड विविध प्रकार के महामूल्यवान् मणिरत्नों से जड़ित था, सललियाहि- वे अत्यन्त सुन्दर थे णरवइसिरिसमुदयप्पगासणकरिहिं - उनसे नरेन्द्र की राज्यश्री की शोभा प्रकट हो रही थी, वरपट्टणुग्गयाहिं - वे प्रधान नगर के उत्तम कलाकारों द्वारा निर्मित थे, समिद्धायकुलसेवियाहिं - वे चंवर समृद्ध राजाओं से सेवित थे, कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूववसवासविसदगंधष्दुयाभिरामाहिं - वे कालागुरु श्रेष्ठ कुन्दरुक्क और तरुक्क आदि सुगन्धित धूपों से अत्यन्त सुगन्धित थे, चिल्लिगाहिं - देदीप्यमान थे, उभओपासं वि चामराहिं - वे चंवर आस-पास दोनों ओर, उक्खिप्पमाणाहिं - उठ कर विंजाते थे, सुहसीयलवायवीइयंगा - उनका शीतल पान शरीर को सुखदायक था।
भावार्थ - बलदेव और श्रीकृष्ण अपने मस्तक पर धारण किये हुए छत्रों से सुशोभित थे। उनके धारण किये हुए छत्रों की शलाकाएं सघन-ठोस एवं उन्नत थीं और गोलाईयुक्त होने से वे छत्र पूर्ण चन्द्र के समान सुशोभित थे। उन छत्रों की किरणें सूर्य की किरणों तथा उनके कवच के समान चारों ओर प्रसरी हुई थीं। उन छत्रों के मुख्य दण्ड के लिए सहायक प्रतिदण्ड भी थे।
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