________________ 190 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०५ **************************************************************** कर, वसुहं - समस्त भारतवर्ष की पृथ्वी को, अपरिमिय - अपरिमित, अणंत - अत्यन्त, तण्ह - तृष्णा, अणुगय - अप्राप्य वस्तु को, महिच्छ - महत्ती इच्छा, णिरय मूलो - नरक प्राप्ति के मूल कारण हैं, लोहकलिकसायमहक्खंधो - लोभ, कलि अर्थात् संग्राम और कषाय इस परिग्रह रूपी वृक्ष के महान् स्कन्ध हैं, चिंतासयणिचियविउलसालो - सैकड़ों प्रकार के विषयों का चिन्तन और मन का खेद, इस वृक्ष की विस्तृत शाखाएँ हैं, गारवपविरल्लियग्गविडवो - ऋद्धि गारव, रस गारव और साता गारव, इन तीन गारवों में अत्यन्त अनुराग, इस वृक्ष की शाखाओं का अग्रभाग है, णियडितयापत्तपल्लवधरो - धूर्तता करके दूसरों को ठगना आदि माया के कार्य, इस वृक्ष की त्वक्-छाल, पत्ते और पल्लव अर्थात् नूतन कोमल पत्ते हैं, पुष्फफलं - फूल और फल हैं, जस्स - इस वृक्ष के, कामभोगा - कामभोग, आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरो - शारीरिक खेद और मानसिक चिंता एबं कलह, इस वृक्ष के कम्पित होते हुए अग्रभाग हैं, णरवईसंपूइओ - यह वृक्ष राजाओं द्वारा पूजित है, बहुजणस्स - बहुतजनों का, हिययदइओ - हृदय वल्लभ है, इमस्स - इस, मोक्खवरमोत्तिमगस्स- मुक्ति मार्ग का उपाय निर्लोभता है, फलिह भूओ - यह उसे रोकने वाली अर्गला के समान है, चरिमं - अन्तिम, अहम्मदारं - अधर्म द्वार है। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामीजी कहते हैं कि - हे जम्बू! चौथे अधर्मद्वार के बाद अब परिग्रह नामक पाँचवें अधर्मद्वार का प्रसंग है। अनेक प्रकार के मणि, सोना, रत्न, बहुमूल्य सुगन्धित द्रव्य, स्त्री, पुत्र और समस्त परिवार, दास-दासी, गृह-सेवक, प्रेष्य-ग्रामान्तर भेजा जाने वाला सेवक, हाथी, घोड़े, गायें, भैंसे, ऊंट, गधे, बकरे, भेड़, पालकी, रथ, यान, जुग्य, स्यन्दन (रथ विशेष) शयन (पलंगादि) आसन, वाहन, घर के बरतन, धन, धान्य, भोजन, पानी, वस्त्र, गन्ध, माला, भाजन और भवनों से किए जाने वाले तथा अन्य अनेक प्रकार के भोग-साधन, पर्वत, नगर, निगम, जनपद, उत्तमपुर, द्रोणमुख, खेड, कर्बट, मंडप, संबाध तथा हजारों पत्तनों से सुशोभित और निर्भयतापूर्वक रहने वाले जनसमूह से पूर्ण, समुद्र पर्यन्त भारतवर्ष की पृथ्वी का एकछत्र राज्य का भोग करने पर भी, जो असीम तृष्णा और उत्कट इच्छा का अस्तित्व है, वही परिग्रह रूपी अधर्म का मूल है और नरकगति का कारण है। इस परिग्रह रूपी पाप के तृष्णा रूपी मूल है और लोभ, कलि (संग्राम) और कषायरूपी स्कन्ध है। विषयों का चिन्तन एवं मानसिक खेद रूपी विस्तृत शाखाएँ हैं। ऋद्धि रस और साता गारव में अत्यन्त अनुराग रूपी शाखाओं के विटप (अग्रभाग) हैं। धूर्तता, ठगाई आदि रूपों में उत्पन्न माया, इस तृष्णारूपी वृक्ष की छाल, पान एवं पल्लव (कोमल पान) है और कामभोग इसके पुष्प तथा फल हैं। शारीरिक खेद, मानसिक चिन्ता और क्लेश इस वृक्ष का अग्रभाग है। यह वृक्ष राजा-महाराजाओं द्वारा पूजित है और बहुजन समुदाय का हृदय वल्लभ है। यह परिग्रह रूपी अधर्म, निर्लोभता रूपी मोक्ष-द्वार को बन्द करने वाली अर्गला के समान है और अन्तिम अधर्मद्वार है।... For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International