________________
. बलदेव और वासुदेव के भोग
१६५ wwwwwwwwwwww************************************ दरियणागदप्यमहणा - दर्पवन्त-घमण्डी नाग के दर्प का मर्दन करने वाले, जमलजुणभंजगा - जमलार्जुन को जिन्होंने नष्ट किया है, महासउणिपूयणारिवू - महाशकुनी और पूतना नामक दुष्टा विद्याधरी के नाशक, कंसमउडमोडगा - कंस के मुकुट को तोड़ने वाले, जरासंधमाणमहणा - जरासंध के मान का मर्दन करने वाले।
- भावार्थ - वे बलदेव और वासुदेव, दयालु-कृपानिधि थे। उनमें मात्सर्य-भाव (किसी दूसरे के प्रति ईर्ष्या-जलन) नहीं था। उनमें चंचलता नहीं थी। वे अकारण कुपित नहीं होते थे। उनकी बोली मृदुतायुक्त एवं परिमित थी। वे स्मित युक्त एवं गम्भीरतापूर्वक मिष्ट-वाणी का उच्चारण करते थे। अपनी शरण में आये हुए मनुष्यों पर वे वात्सल्य भाव रखते हुए रक्षा करते थे। पुरुषों के शरीर में जितने उत्तम लक्षण और गुण होते हैं, वे उन शुभ लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त थे। उनके शरीर के सभी अंगोपांग सुन्दर, प्रमाणयुक्त और मान-उन्मान सहित थे। उनकी मुखाकृति चन्द्रमा के समान सौम्य, कान्तियुक्त, प्रिय एवं मनोहर थी। वे लिये हुए कार्य को पूरा करने में विलम्ब या आलस्य नहीं करते थे। शत्रु के अपराध की वे उपेक्षा नहीं करते थे। दुष्टों का दमन करने के लिए उनका दण्डविधान गम्भीर एवं प्रचण्ड था।
उनकी ध्वजा ताल वृक्ष के समान बहुत ऊँची थी। उस ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न अङ्कित था। बलदेव ने उस मुष्टिक-मल्ल को मार डाला था जो अत्यन्त बलवान् था और गर्वयुक्त गर्जना करता रहता था तथा चाणूर-मल्ल को कृष्ण-वासुदेव ने मारा था। इसके अतिरिक्त रिष्ट नामक दुष्ट वृषभ को भी श्री कृष्ण ने मारा था। उन्होंने केसरीसिंह का मुँह पकड़कर चीर दिया था और अत्यन्त दर्पितघमण्डी ऐसे काले विषधर सर्प का मान-मर्दन किया था। उन्होंने यमलार्जुन को नष्ट कर दिया था। महाशकुनी और पूतना को भी उन्होंने मार डाला था। कंस के मुकुट को तोड़कर उसे प्राणरहित कर दिया था और जरासंध के मान का मर्दन किया था।
तेहि य अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पभेहिं सूरमिरीयकवयं विणिम्मुयंतेहिं सपडिदंडेहिं, आयवत्तेहिं धरिजंतेहिं विरायंता ताहि य पवरगिरिकुहरविहरणसमुट्ठियाहिं णिरुवहयचमरपच्छिमसरीरसंजायाहिं अमइलसेयकमलविमुकुलज्जलिय-रययगिरिसिहर-विमलससिकिरण-सरिसकलहोयणिम्मलाहिं पवणाहय-चवलचलियसललियपणच्चियवीइ-पसरियखीरोदगपवरसागरुप्पूरचंचलाहिं माणससरपसरपरिचियावास-विसदवेसाहिं कणगगिरिसिहरसंसिताहिं उवायप्पाय-चवलजयिणसिग्घवेगाहिं हंसवधूयाहिं चेव कलिया णाणामणि-कणगमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तडंडाहिं सललियाहिं णरवइसिरि-समुदयप्पगासणकरिहिं वरपट्टणुग्गयाहिं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org