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मृषावादी
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वाले, सोने का काम करने वाले-सुनार, रंगरेज या कारीगर, वंचणपरा - ठगाई करने वाले, चारिय - . दलाल, चाटुयार - खुशामदी, णगरगोत्तिय - नगर रक्षक, परियारगा - मैथुन सेवन करने के लिए स्त्रियों को बहकाने वाला, दुद्रुवाइ - दुष्टवाद-खोटा पक्ष लेने वाला, सूयग - चुगली करने वाला, अणबलभणिया - ऋण से दबे हुए ऋणि, पुवकालिय-वयणदच्छा - दूसरे के अभिप्राय को जानकर वचन बोलने में निपुण, साहसिया - साहस करने वाले, लहुस्सगा - हल्के, अधम-नीच लोग, असच्चादुर्जन, गारविया - घमंडी, असच्चट्ठावणाहिचिता - असत्य की स्थापना करने के विचार वाले, उच्चच्छंदा - स्वयं को उत्कृष्ट बताने के इच्छुक, अणिग्गहा - स्वच्छंदी, निरंकुश, अणियत्ता - नियम रहित, छंदेणमुक्कपाया - बिना बिचारे इच्छानुसार बोलने वाले, भवंति - होते हैं, अलियाहिं - मृषावाद से, जे - जो, अविरया - निवृत्त नहीं है।
भावार्थ - जो पापी मनुष्य असत्य भाषण करते हैं, वे असंयत (इन्द्रियों पर नियंत्रण रहित) अविरत (पापों में प्रवृत्त) हैं। उनका मन कप्रट के कारण कुटिल एवं चंचल होता है। क्रोधी, लोभी, विषयों में गृद्ध एवं भयभीत व्यक्ति अथवा दूसरों को भयभीत करने वाले झूठ बोलते हैं। कई दूसरों की हंसी करने के लिए झूठी बातें बनाते हैं। कई झूठी साक्षी देकर अपना हित साधते हैं या दूसरों का अहित करते हैं। चोर, गुप्तचर, राजस्व प्राप्त करने वाले, जुआरी दूसरों की धरोहर दबाने वाले मायावी, कुतीर्थी, व्यापारी, खोटे नाप-तोल करने वाले, नकली सिक्का चलाने वाले, बुनर, स्वर्णकार, रंगारे, दलाल आदि दूसरों को ठगने के लिए मिथ्या वचन बोलते हैं। खुशामदी (चापलूस) व्यक्ति किसी की प्रशंसा करने के लिए झूठ बोलते हैं। नगर-रक्षक भी अपने प्रयोजन से असत्य भाषण करते हैं। व्यभिचारी अथवा व्यभिचार से आजीविका करने वाले भी मृषावादी होते हैं। मिथ्यापक्ष के पक्षकार, चुगलखोर, ऋणी, दूसरों का अभिप्राय जानने अथवा दूसरों का अभिप्राय जानकर वचन बोलने में प्रवीण मनुष्य, साहसपूर्ण कार्य करने वाले, नीच, दुर्जन, अभिमानी, झूठ को सत्य के रूप में बताने वाले, अपने-आपको सर्वोत्कृष्ट बताने की कामना वाले, स्वच्छन्दाचारी, नियमों की उपेक्षा करने वाले, बिना विचारे बोलने वाले एवं जूठ से अविरत जीव मृषावादी होते हैं।
विवेचन - इस सूत्र में मृषावादी जीवों के मृषावाद का कारण बतलाया गया है। मृषावादी असंयत्त अविरत ही होते हैं। जो संयमी एवं पापों से सम्यक् प्रकार से विरत हैं, उनके मिथ्या-भाषण करने का कारण नहीं रहता। मृांवादी के मन में क्रोधादि कषाय एवं हास्यादि नो-कषाय का तीव्र उदय रहता है। इसी से प्रेरित होकर मिथ्या-भाषण करते हैं।
कुतीर्थी के मिथ्यात्व का उदय रहता है। उसकी दृष्टि में विकार होता है। मिथ्यात्व के साथ मृषावाद एवं अविरति का सम्बन्ध होता ही है। जो साधु हैं और मृषावाद से विस्त हो चुके हैं, वे ही इस पाप से बचते हैं।
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