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- जिसके पास धन है, उसके मित्र भी हो जाते हैं, जिसके पास धन है, उसके बान्धव भी हैं, वह लोक में मान्य भी होता है और वह पंडित - बुद्धिमान् भी माना जाता है। यह सभी प्रभाव धन का है। पापकर्म के उदय से जीव धन तथा सुख-सामग्री से वंचित - दरिद्र होता है।
एवमाहंसु णायकुल-णंदणो महप्पा जिमो उ वीरवर णामधेज्जो कहेसी य अदिण्णादाणस्स फलविवागं एयं तं तइयं पि अदिण्णादाणं हर - दह-मरण-भयकलुस - तासण- परसंतिक भेज्ज - लोहमूलं एवं जाव चिर-परिगय- मणुगयं दुरंतं । ॥ तइयं अहम्मंदारं सम्मत्तं ॥ त्ति बेमि ॥
प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३
शब्दार्थ - एवमाहंसु - इस प्रकार णायकुलणंदणो ज्ञातृ-कुल- नन्दन, महप्पा - महान् आत्मा, जिणो उ - जिन भगवान् ने वीरवरणामधेज्जो - वीरवर - महावीर नाम वाले, कहेसी - कहा है, अदिण्णादाणस्स - अदत्तादान का, फलविवाग फल-विपाक, एयं तं - यह, तइयं तीसरा, हर- दहमरण-भय-कलुसतासण हरण, जलन, मरण, भय, क्लेश और त्रासन परसंतिकभेज्जलोहमूलं दूसरों की शांति नष्ट करने वाला तथा लोभ का मूल कारण है, एवं जाव- यावत्, चिर-परिगय- मणुगयं चिरकाल से परिगत तथा साथ लगा हुआ है, दुरंत फल का अन्त होना अत्यन्त कठिन है।
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तइयं अहम्मदारं सम्मत्तं तीसरा अधर्मद्वार समाप्त हुआ, त्तिबेमि मैं कहता हूँ । भावार्थ - इस प्रकार अदत्तादान नामक पापकृत्य का फल-विपाक, ज्ञातृकुल के नन्दन और वीरवर-महावीर-नाम वाले जिनेश्वर महात्मा ने कहा है। यह अदत्तादानं नामक तीसरा पाप, धन-हरण, मृत्यु, भय, क्लेश और त्रास से भरपूर है, दूसरों की शांति को नष्ट करने वाला है तथा लोभ का मूल कारण है (अथवा लोभ ही चौर्यकर्म का मूल कारण है)। यह अदत्तादान नामक पाप चिरपरिगतअनादिकाल से परिचित तथा अनुगत - जीव के साथ लगा हुआ है। इसका अन्त होना अत्यन्त कठिन है। यह तीसरा अधर्मद्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं कहता हूँ ।
॥ अदत्तादान नामक तीसरा अधर्मद्वार सम्पूर्ण ॥
भरपूर,
इस प्रकार,
इस पाप
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