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पापियों के पाप का फल
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सतप्त रहत है।
भावार्थ - लोक में धनोपार्जन करना और काम के सुखों का भोग करना-ये दो बातें मुख्य एवं सार रूप मानी गई हैं, किन्तु ये दोनों विशेषताएं. उन्हें प्राप्त नहीं होती। पाप के फल को भोगते हुए वे पापी जीव, धन और सुख प्राप्त करने के लिए बहुत उद्यम करते हैं, फिर भी निष्फल रहते हैं। दिनभर कठिन परिश्रम करके वे जो कुछ दुःख पूर्वक प्राप्त करते हैं, वे भी उनके पास नहीं रहता, उसे कोई अन्य ले जाता है या नष्ट हो जाता है। उनके पास धन-धान्य एवं बोग के साधन स्थिर नहीं रहते और न वे उनका उपभोग कर पाते हैं। वे कामभोग से सदैव वंचित रहते हैं। वे दूसरों की लक्ष्मी तथा भोगोपभोग देख कर सदैव तरसते रहते हैं। वे बेचारें दीन लोग अपनी इच्छा की पूर्ति नहीं होने के कारण सारा जीवन ही दुःखपूर्वक व्यतीत करते हैं। उन्हें न तो कभी सुख मिलता है और न शांति ही प्राप्ति होती है। जो दूसरों के धन के लोभ से विरत नहीं हुए, वे सैकड़ों प्रकार के दुःखों से सदैव संतप्त रहते हैं। .. यह अदत्तादान रूपी चौर्यकर्म का इस लोक और परलोक में होने वाला फल-विपाक है। यह सुख से रहित और दुःखों से भरपूर है। महा भयंकर है, पापकर्मों के मल से भरा हुआ है, कठोर है
और अशांति से परिपूर्ण है। हजारों वर्षों तक पाप का दुःख पूर्ण फल भोगने के बाद कठिनाई से इससे . छुटकारा होता है। बिना भोगे इस पाप से मुक्ति नहीं हो सकती। •
विवेचन - इस सूत्र में चौर्य पापकर्म के फलस्वरूप प्राप्त दारिद्र्य, दुःख, दुर्भाग्य एवं जीवननिर्वाह के लिए आवश्यक ऐसे आवश्यक ऐसे आहारादि के अभाव का उल्लेख हुआ है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि मानव-जीवन में धनाभाव तथा सुख-सामग्री की अप्राप्ति का मूल कारण, पूर्व-संचित पाप का फल है। सूत्र के ये मूल शब्द-'दरिदोवद्दवाभिभूया' 'जीवणत्थरहिया' 'दुक्खलद्धाहारा'
आदि स्पष्ट रूप से कर्मफल घोषित कर रहे हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि जिन्हें धनादि की प्राप्ति होती है, वह सदाचरण से संचित शुभकर्मों का फल है। जो लोग इसमें अविश्वासी हो कर विपरीत प्ररूपणा करते हैं, उन्हें इस पर विचार करना चाहिये और मानना चाहिए कि 'पुद्गलविपाकिनी' प्रकृतियों का फल, केवल शरीर और उनके वर्णादि का शुभाशुभ होना ही नहीं, अपितु इष्ट वर्णगन्धादि पौद्गलिक सामग्री की प्राप्ति-अप्राप्ति एवं सम्पन्नता-विपन्नता भी है, अवश्य है।
'अत्थोपायण काम-सोक्खे य लोयसारे होति', टीका-"अर्थोपादानं-द्रव्योपार्जनं, कामसौख्यं इन्द्रियाजातं ते, द्वे लोकसारे-लोकप्रधाने भवंति अर्थकाम एवं लोके मान्य भवति।" अर्थात् धनोपार्जन और इन्द्रियजन्य काम-सुख-ये दो लोक में सार रूप माने गये हैं। कहा है कि - "यस्याऽस्तिस्य मित्राणि, यस्यास्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थाः स पुमान् लोके, यस्यार्थाः स च पण्डितः॥१॥"
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