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अब्रह्मचर्य नामक चौथा आश्रव-द्वार जंबू! अबंभं य चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिजं पंकपणय पासजालभूयं थी-पुरिस-णपुंस-वेयचिंधं तव-संजम-बंभचेरविग्धं भेयाययणवहुपमायमूलं कायर-कापुरिससेवियं सुयणजणवजणिजं उड्डणरय-तिरियतिल्लोकपइट्ठाणं जरा-माण-रोग-सोगबहुलं वध-बंध-विधाय-दुविधायं दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरिगय-मणुगयं दुरंतं चउत्थं अहम्मदारं॥१॥
शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, अबंभं - अब्रह्म, चउत्थं - चौथा, सदेवमणुयासुरस्सलोयस्स - देव, मनुष्य और असुरों सहित सभी लोगों का, पत्थणिजं - इच्छनीय-अभीष्ट है, पंकपणय - कीचड़ और काई-फूलन, पासजालभूयं - बन्धन और जाल के समान, थी-पुरिस-णपुंसयवेयचिंधं - स्त्री-पुरुष और नपुंसक वेद के चिह्न तप हैं, तवसंजमबंभचेरविग्धं - तप; संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्न कारक, भेयायणबहु - भेदायतन-चारित्र एवं जीवन का भेद-विनाश करने वाले ऐसे बहुत-से, पमायमूलं - प्रमाद का मूल है, कायरकापुरिससेवियं - कायर और अधम पुरुषों से सेवित, सुयणजणवज्जणीयं - पाप-विरत ऐसे सज्जन पुरुषों से त्याज्य, उड्डणरयतिरियतिल्लोकपइट्ठाणं - ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् ऐसे तीनों लोक में प्रतिष्ठित-व्याप्त, जरामरणरोगसोगबहुलं - बुढ़ापा, मृत्यु, रोग और शोक की अधिकता वाला, वधबंधविधाय दुविधायं - वध बन्धन मारण जन्य दुःसह दुःखों से भरा हुआ, दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं - दर्शन-मोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म का हेतुभूत, चिरपरिगयमणुगयं - चिरकाल-अनादिकाल से जीव का परिचित एवं अनुगत-साथ लगा हुआ, दुरंतं - जिसका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है, चउत्थं अहम्मदारं - यह चतुर्थ अधर्मद्वार है।
____भावार्थ - गणधर श्री सुधर्मा स्वामी महाराज कहते हैं कि हे जम्बू! यह अब्रह्म नामक चौथा अधर्मद्वार है। ब्रह्मचर्य-विनाशक यह अधर्म, मनुष्य देव और असुर-सभी लोगों के लिए प्रिय एवं अभीष्ट है-इसे सभी चाहते हैं। यह आत्मा को पाप-पङ्क से मलिन एवं कलंकित करता है। आत्मा को मोहपाश या कर्म-जाल में बांधने वाला है। यह स्वयं ही जाल एवं बन्धनभूत है। स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद का चिह्न भी यह अब्रह्म ही है। तप, संयम और ब्रह्मचर्य को विघ्न उत्पन्न करने वालाबाधक भी यही है। चारित्र तथा जीवन को नष्ट करने वाले ऐसे प्रचुर प्रमाद का मूल भी यह अब्रह्म है। कायर एवं कापुरुष-निम्न-कोटि के लोग ही (जो ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं कर सकते) इसका सेवन करते हैं। उन्हीं के द्वारा यह सेवित है। उत्तमजनों (व्रतधारी सज्जनों) से यह त्याज्य है। इस अब्रह्म की प्रतिष्ठा ऊर्ध्व, अधो और तिर्यग्-इन तीनों लोक में है। जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता इसके सेवन का परिणाम है और वध, बन्धन तथा मृत्युजन्य विविध प्रकार के असह्य दुःखों से भरपूर है। यह
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