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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ ****************************************************************
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पाप दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म का मूल कारण है। आत्मा का यह चिर परिचित (अनन्त काल से परिचित) एवं चिर अनुगत-सदा से साथ लगा हुआ है। इसका अन्त आना अत्यन्त कठिन है। ऐसा भयानक यह अब्रह्म नामक चौथा अधर्मद्वार है।
विवेचन - अब सूत्रकार 'अब्रह्म' नामक चतुर्थ अधर्मद्वार का वर्णन करते हैं। 'अब्रह्म' का अर्थ है-अकुशलकर्म-निन्दनीय कर्म-पापकर्म-मैथुन सेवन-पुरुष का स्त्री, स्त्री का पुरुष और नपुंसक का उभय से विषय सेवन।
मैथुनकर्म, मनुष्य देव और असुरों का इच्छित विषय है। संज्ञी तिर्यंच भी इससे वंचित नहीं रहे। इसका प्रभाव तीनों लोक में व्याप्त है। अधोलोक के भवनपति से लेकर ऊर्ध्वलोक के दूसरे देवलोक के देव-देवी तक इसका प्रभाव फैला हुआ है। वैसे स्त्री-सम्बन्धी शब्द वर्णादि विषयों का चिन्तनादि से आंशिक सेवन तो ऊर्ध्वलोक में बारहवें देवलोक तक है। प्रज्ञापन ३४)। ।
अब्रह्म रूपी अधर्म का सेवन पशु-पक्षी आदि तिर्यंचों से लगा कर कई धर्माचार्य एवं धर्मसंस्थापक माने जाने वाले आराध्यों में भी पाया जाता है। इस पाप से बचे हैं तो केवल जिनेश्वर भगवंत और उनके आराधक उत्तम साधु-साध्वी। कहा भी है कि -
"हरिहरहिरण्यगर्भप्रमुखे, भुवने न कोऽप्यसौ शूरः। कुसुमविशिखस्य विशिखान्, अस्खलयत् यो जिनादन्यः॥१॥"
कायरी कापुरुष सेवित - ब्रह्मचर्य रूपी धर्मरत्न को सुरक्षित नहीं रख कर, अब्रह्म रूपी पाप की भेंट चढ़ाने वाले वास्तव में कायर हैं, कापुरुष हैं, फिर वे भले ही बल में विशिष्टता रखते हों और युद्धवीर हों। जो सज्जन हैं-विरत हैं, उनके द्वारा अब्रह्म त्याज्य हैं। वास्तव में वे ही वीर हैं।
जरामरणरोगशोकबहुल - अब्रह्म के पाप का परिणाम शारीरिक और मानसिक स्वस्थता को गिराने एवं नष्ट करने वाला है। अनेक प्रकार के रोग एवं क्लेश इसी पाप में से उत्पन्न होते हैं। यह बल · को क्षीण कर बुढ़ापे के दुःख बढ़ाने वाला है।
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोह का हेतुभूत - अब्रह्म का पाप, चारित्रमोह के उदय से होता है और इससे चारित्र का नाश तो होता ही है, किन्तु अब्रह्म के तीव्र उदय से दर्शनमोह की तीव्रता हो जाती है और इससे दर्शन गुण भी नष्ट हो जाता है। अब्रह्म पाप से प्रेरित होकर स्त्री, पति एवं पुत्र को मार देती है। पुरुष, पत्नी, माता और पुत्रादि को मार देता है। जाति और धर्म का त्याग कर विधर्मी तथा अधर्मी हो जाता है। धर्म-द्रोही बन जाता है। इस प्रकार अब्रह्म का पाप दर्शनमोह को उत्तेजित कर मिथ्यात्व एवं महामोह बन्धन में हेतुभूत होता है।
अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम तस्स य णामाणि गोण्णाणि इमाणि होति तीसं, तंजहा- १. अबंभं २. मेहुणं
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