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... मृषावादी-नास्तिकवादी का मत ***** *************************************************** नहीं है, सिद्धिगमणं - मुक्ति गमन-सिद्धिगति, अम्मापियरो - माता-पिता, पुरिसकारो - पुरुषार्थ, पच्चक्खाणमवि - प्रत्याख्यान भी, कालमच्चू - काल से मृत्यु, अरिहंता - अरिहंत, चक्कवट्टी - चक्रवर्ती, बलदेवा - बलदेव, वासुदेवा-- वासुदेव, णेवत्थि - अस्तित्त्व नहीं, रिसओ - ऋषि का धम्माधम्म फलं - धर्म और अधर्म का फल, बहुयं - बहुत, थोवर्ग - थोड़ा, तम्हा - इसलिए, विजाणिऊण - जान कर, इंदियाणुकूलेसु - इन्द्रियों के अनुकूल, सव्वविसएसु - सभी विषयों में, वट्टहा- प्रवृत्ति करनी चाहिए, णत्थिकाइ - कोई नहीं, किरिया - क्रिया, अकिरिया - अक्रिया।
भावार्थ - अन्य वाममार्गी (लोकायतिक मत वाले) नास्तिकवादी कहते हैं कि-जीव नहीं है और न जीव इस लोक या परलोक में जाता है। जीव, पुण्य और पाप का स्पर्श भी नहीं करता। शुभ करणी का शुभफल भी नहीं है और पापकृत्य का कटुफल भी नहीं है। यह शरीर पांच महाभूतों से बना हुआ है और वायु के योग से क्रियाशील है।
कई पांच स्कन्ध बतलाते हैं और मन को ही जीव कहते हैं। कोई कहते हैं-वायु ही जीव है। शरीर उत्पत्तिशील और विनष्ट होने वाला है। भव भी यह एक ही है। इस शरीर के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है। वे मृषावादी लोग कहते हैं कि-जब कुछ भी नहीं है, तो दान, व्रत, पौषध, तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का कुछ भी फल नहीं होता। प्राणवध, मृषावाद, चोरी, पर-स्त्री गमन और परिग्रह रखना आदि पाप का कछ भी फल नहीं होता। नरक. तिर्यंच और मनष्ययोनि प्राप्त करना भी कर्म-फल नहीं है। न देवलोक है, न सिद्धगति है। माता-पिता भी नहीं हैं। पुरुषार्थ और प्रत्याख्यान भी नहीं है। काल से मृत्यु.होना भी असत्य है। अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और ऋषि भी नही हैं। धर्म और अधर्म का फल न थोड़ा है और न बहुत। किंचित्मात्र भी नहीं है। इस प्रकार जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में अपनी इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस प्रकार वामलोकवादी नास्तिक लोग कहते हैं।
विवेचन - पूर्व सूत्र में विषय और कषाय के वश होकर असत्य बोलने वालों का परिचय दिया गया है। वे जीव अनन्तानुबन्धी आदि कषाय के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। अब सूत्रकार मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मृषावाद बोलने वाले का वर्णन करते हैं। कुतीर्थियों में प्रथम स्थान नास्तिकवादी का है। नास्तिक मतावलम्बी तो जीव को ही नहीं मानता। वह कहता है-'इस दृश्यमान शरीर से भिन्न "जीव" या "आत्मा" नाम की कोई अदृश्य वस्तु ही नहीं है और न इसे सिद्ध करने वाला कोई आधार-प्रमाण ही है।' नास्तिकवादी केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं। परन्तु आत्मा अरूपी है, इसलिए प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती।
जब वे जीव ही नहीं मानते, तो लोक-परलोक क्यों मानने लगे? आस्तिकवादी ही जीव को इस लोक में आने वाला और परलोक में जाने वाला मानते हैं। जीव की मान्यता के साथ ही लोक-परलोक की संगति हो सकती है। अतएव उनके मत में जीव ही नहीं और जीव के लिए यह लोक और परलोक
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