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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २
साधुजनों ने मिथ्या-भाषण की निन्दा की है। झूठ वचन दूसरे जीवों को पीड़ा उत्पन्न करता है। यह परम कृष्णलेश्या से युक्त होता है। इस पाप से दुर्गति की ओर गमन करने की शक्ति बढ़ती है। मिथ्यावाद से भव - परम्परा बढ़ती है। जीव से यह पाप बहुत लम्बे काल (अनादि) से परिचित है और साथ हीं चलने वाला है। इसका अन्त आना अत्यन्त कठिन है।
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विवेचन - दूसरे अधर्मद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार मिथ्या - भाषण की भयंकरता बतला हुए पुन: कहते हैं कि सर्वज्ञ - सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवंत महावीर द्वारा प्ररूपित यह मिथ्यावाद रूपी पाप भयंकर है। इसका सेवन करने वाले जीवों को अत्यन्त दारुण दुःख भोगना पड़ता है। झूठ बोलने वालों की इस लोक में प्रतीति नहीं होती। उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं करता। झूठा व्यक्ति लोक में हीन दृष्टि से देखा जाता है। झूठ से वैर, विरोध, रागद्वेष और क्लेश बढ़ता है। इससे दूसरे जीवों को दुःख होता है। मिथ्या - भाषण, कूड़-कपट और दम्भ के मानसिक दलदल से उत्पन्न होता है। झूठे की भावना अत्यन्त कलुषित होती है। यह पाप दुर्गति की ओर तीव्रता से ले जाने वाला है। इससे नीचगति में वृद्धि होती है और जन्म-मरण रूपी भव- परम्परा बढ़ती रहती । पाप और उसका दुःखदायक परिणाम जीव के अनादि काल से साथ ही लगा हुआ है । इस पाप के दुःखदायक फल से छुटकारा होना अत्यन्त कठिन है । उत्तम पुरुषों-श्रेष्ठ साधु-महात्माओं ने मिथ्या - भाषण की निंदा की है।
चिरपरिचियमणुगयं चिर परिचित एवं अनुगत- जीव, पाप के साथ अनादिकाल से परिचित है और पूर्व का परिचित पाप, वर्तमान में भी पाप की ओर गति करवाता है। यह गति आगे भी बढ़ती रहती है। जीव, पाप से परिचित होने के कारण पाप प्रिय हो जाता है । यह विभाव स्वभाव जैसा बन जाता है और साथ ही लगा रहता है। सम्यग् पुरुषार्थ से ही पाप-परम्परा नष्ट होती है और पाप - परम्परा का उच्छेद ही सुख के भव्य भण्डार का उद्घाटक है।
॥ मृषावाद नामक दूसरा अधर्मद्वार सम्पूर्ण ॥
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