Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 157
________________ १४० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ *************************************************************** क्षुब्ध बना हुआ प्रचुर जल है, संजोगवियोगवीचीचिंता-पसंग-पसरिय - संयोग वियोग से उत्पन्न चिन्ता की लहरें बढ़ती रहती हैं, वहबंधमहल्ल-विपुलकल्लोलं - वध बन्धन और यातना रूपी बहुत-सी तरंगें उठती हैं, कलुणविलविय - करुण विलाप, लोभ - लोभ, कलकलिंतबोलबहुलं - कलकल करके बहुत-सी ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, अवमाणणफेणं - अपमान रूपी फेन है, तिव्वखिंसणपुलंपुल - निरन्तर होती रहती तीव्र निंदा, प्पभूयरोगवेयणपराभवविणिवाय - बहुत-से रोग तथा वेदना से पराजय एवं पतन से, फरुसधरिसणसमावडिय - कठोर एवं कटु वचनों से प्राप्त फटकार, कठिणकम्मपत्थरक्लिष्ट कर्म रूपी पत्थर से टकरा कर उत्पन्न, तरंगरंगत - तरंगों से चंचल, णिच्चमच्चुभयतोयपटुं - मृत्यु का सदा ही लगा रहने वाला भय पानी का ऊपर का भाग है, कसायपायालसंकुलं - कषायरूप पाताल कलश युक्त, भवसयसहस्सजलसंचयं - लाखों भवरूपी जल का संचय है जिसमें, अपांतं - अनन्त-जिसका पार नहीं, उव्येवणयं - उद्वेग उत्पादक, अणोरपारं - अत्यन्त बिस्तृत, महब्भयं - महान् भयकारी, भयंकरं - भयोत्पादक, पइभयं - प्रतिभय-विशेष भयकारी, अपरिमियमहिच्छ - अपरिमित-सीमा रहित अत्यन्त इच्छा, कलुसमइ - मलिन मति, वाउवेगउद्धम्ममाणं - वेग वाले वायु से बढ़े हुए, आसापिवासपायाल - आशा पिपासा-तृष्णा रूप पाताल, कामरइरागदोस - काम, रति, राग और द्वेष, बंधणबहुविह - बहुत प्रकार के बन्धन, संकप्प - संकल्प, विउलदगरय- विपुल जलकण, रयंधकारं - अन्धकार से व्याप्त, मोहमहावत्त - मोह रूपी महान् आवर्त-भ्रमर, भोगभममाण - भोग रूपी भमता हुआ, गुप्पमाणुच्छलंत - व्याकुल हो कर उछल रहे हैं, बहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणियंप्राणी बहुत-से गर्भवासों रूप मध्य में उत्पन्न हो कर मरण करते हैं, पहावियवसणसमावण्ण - इधर-उधर से प्राप्त दुःखों से पीड़ित, रुण्ण - रुदन, चंडमारुयसमाहया - प्रचण्ड वायु से संघर्षित हो, अमणुण्णवीचीवाकुलिय - अमनोज्ञ वेदन रूप तरंगों से व्याकुल, भग्गफुट्टतणिट्ठकल्लोलसंकुलजलंटकरा कर टूटे हुए और अनिष्ट कल्लोलों से क्षुब्ध बने हुए जल से पूर्ण, पमायबहुचंडदुद्रुसावयसमाहयप्रमाद रूपी बहुत ही दुष्ट स्वापद-व्याघ्रादि हिंसक जीव से आहत, उद्धायमाणग - उछलते हुए धावाकरते हुए, पूरघोरविद्धंसणत्थबहुलं - वेग से घोर एवं अत्यन्त विनाश हो रहा है, अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थं - अज्ञान रूपी सबल मच्छ इसमें परिभ्रमण करते हैं, अणिहुतिंदिय-महामगर - अनुपशांत इन्द्रिय रूपी महामगर, तुरियचरियखोखुब्भमाण - शीघ्रता से चलने से क्षुब्ध हुए, संतावणिचयचलंतचवलचंचल - संताप रूपी शोकाग्नि-बड़वानल से जो सदा चंचल एवं चपल बना हुआ है, अत्ताण असरण - त्राण तथा शरण-रक्षा और आश्रय से रहित, पुव्यकयकम्मसंचयोदिण्ण - जिन्होंने पूर्वभव में पापकर्मों का संचय किया है, उनके उदय में आने पर, वजवेइज्जमाण - पापरूप फल का वेदन होने पर, दुहसयविवाग - सैकड़ों दुःखों का विपाक-अनुभव रूप, घुण्णंतजलसमूह - घूमते हुए जल समूह से। भावार्थ - यह संसार समुद्र के समान अगाध है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, ये चार गतियाँ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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