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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३. ***************************************************************
शब्दार्थ - इड्डिरससायगारवोहार - ऋद्धि रस और सातारूप गारव ही इसमें अपहार-जलचर विशेष है, गहियकम्मपयडिबद्धसत्त - कर्मों से ग्रहित एवं बद्ध जीव, कविजमाणणिरयतलहुत्त - खिंचकर नरक रूप पाताल में ले जाते हुए, सण्णविसण्ण बहुलं - अत्यधिक चिंतित एवं शोकाकुल जीवों से भरा है, अरइ-रइ-भयविसाय-सोगमिच्छत्त-सेलसंकडं - अरति, रति, भय, विशाद, शोक और मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से विषम हो रहा है, अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारअनादि काल से जिनकी संतति चली आ रही है ऐसे कर्मबन्धन रूप कीचड़ से जो दुस्तर है, अमरणरतिरियणिरयगइगमण - देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरकगति में गमन रूप, कुडिलपरियत्तविपुलवेलं - कुटिल घुमाव वाली जलवृद्धि विस्तृत रूप से हो रही है, हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभ - हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह आरंभ, करणकरावणाणुमोयण - करण करावण और अनुमोदन से, अट्ठविह अणिट्ठकम्मपिंडिय - आठ प्रकार के अनिष्ट कर्मपिण्ड रूप, गुरुभारक्कंतदुग्गजलोघदुरपणोंलिज्जमाण - बड़े भारी बोझ से दब कर आक्रान्त हुए तथा दु:ख रूप जलराशि में, उम्मुग्गणिम्मुग्ग - डूबते-उतराते, दुल्लभतलं - तल की प्राप्ति दुर्लभ है, सारीरमणोमयाणिदुक्खाणि - शारीरिक और मानसिक दुःखों का, उप्पियंता - उपभोग करते हैं, सायस्सायपरितावणमयं - सुख और दुःख रूप परितापना मय, उब्बुडुणिब्बुड्डयं करेंता - उन्मग्न और निमग्न करते, चउरंतमहंतमणवयग्गं - चारों दिशाओं में व्याप्त महान् जिसका पार नहीं ऐसा अनन्त, रुहं संसारसागरं - रौद्र रूप संसार-सागर, अट्ठियं - अस्थित हैं जो, अणालंबणमपइठाणमप्पमेयं - आलम्बन रहित अप्रतिस्थान एवं अप्रमेय है, चुलसीइजोणिसयसहस्सगुविलं - चौरासी लाख जीव योनि से परिपूर्ण हैं, अणालोकमंधयारं - अज्ञानियों के लिए अन्धकार से परिपूर्ण, अणंतकालं - अनंतकाल तक, णिच्चं - नित्य, उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्ता - भय से त्रस्त तथा आहारादि संज्ञा युक्त हो कर, वसंति - रहते हैं, उबिग्गवासवसहिं - उद्विग्न प्राणियों के रहने का स्थान है।
भावार्थ - ऋद्धि, रस और साता गारव रूप इसमें अपहार नामक जंतु विशेष हैं, जो जीवों को बरबस खींच कर पाताल की ओर ले जाते हैं। ऐसे शोकाकल जीवों से संसार-समद्र भरा हआ है। अरति, रति, भय, शोक, विषाद और मिथ्यात्व रूपी पर्वत, इस समुद्र में बहुत हैं। अनादि काल से जिनकी संतति परम्परा से चली आ रही है ऐसे कर्म-बन्धन और राग-द्वेष तथा क्लेश रूपी कीचड़ इस समुद्र में भरा हुआ है। इस कीचड़ के कारण इसका पार करना बड़ा ही कठिन है। देव, मनुष्य, तिर्यंच
और नरक गति में बार-बार भ्रमण करते रहना इसका चक्कर है, इससे पानी में वृद्धि होती रहती है। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप पांच आस्रवों का सेवन करना, दूसरों से सेवन कराना और 'अनुमोदन करना-ऐसे पाप-व्यापार से आठ प्रकार का कर्म-बन्धन होता है। उस बन्धन के गुरुतर भार से दब कर, दुःख रूपी गम्भीर पानी में डूबते-उतराते जीवों को समुद्र का थाह या तीर प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। शारीरिक और मानसिक दुःखों को भोगना तथा सुख और दुःखजन्य परिताप की
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