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मृषावाद ***************************************************************
फिर नियतिवादी कहता है - "प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं ? दैवमलंघनीयं । तस्यान्न शोचामि न विस्मयामि, यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम्॥"
- मनुष्य को जो प्राप्त होने वाला है, वही मिलता है, अन्य नहीं मिलता। इसका क्या कारण है?-क्योंकि भवितव्यता अलंघनीय-अनिवार्य होती है। इसलिए न तो चिंता करनी चाहिए और न आश्चर्य ही करना चाहिए।
और भी कहा है कि - "सा सा संपद्यते बुद्धि र्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशा ज्ञेया, यादृशी भवितव्यता॥"
- जीव की जैसी भवितव्यता होती है, वैसी ही बुद्धि हो जाती है, प्रयत्न भी वैसा ही होता है और सहायता भी उसी प्रकार की प्राप्त होती है। - इस प्रकार नियतिवादी अपने एकान्तवाद का प्रचार करता हुआ असत्य भाषण करता है।
वास्तव में नियति कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है। यह भी पुरुषार्थ का परिणाम है। पुरुषार्थ से नियति का निर्माण हुआ है। जीव के द्वारा बांधे हुए शुभाशुभ निकाचित कर्म से ही नियति भवितव्यता बनती है। यह नियति पुरुषार्थ की अपेक्षा रखती ही है और पुरुषार्थ के बिना नियति सफल भी कैसे हो सकती है? भोजन सामने रखा है, खाने की इच्छा भी है, किन्तु हाथ से उठाकर मुंह में रखने और चबाकर गले के नीचे उतारने रूप पुरुषार्थ किया जाएगा तभी भवितव्यता सफल होगी। यदि हाथ से उठाकर मुंह में नहीं रखा जाएगा, तो भवितव्यता बरबस पेट में नहीं पहुँचा देगी। अते नियतिवाद को भी पुरुषार्थ उद्योग-उद्यम की अपेक्षा मानना ही चाहिए। भवितव्यता अनुकूल होने पर भी उद्यम होने पर ही वस्तु की प्राप्ति होती है - 'उद्यमे नास्ति दारिद्र्यं'। बिना पुरुषार्थ के तो संमुख उपस्थित रत्नों का ढेर भी प्राप्त नहीं हो सकता। अतएव नियतिवाद भी असत् पक्ष है। __ एकांत नियतिवादी गोशालक-मति देव और भगवान् महावीर के उपासक सुश्रावक कुण्डकौलिक का, सम्वाद उपासकदसा सूत्र अध्ययन ६ में है। देव ने नियतिवाद का पक्ष उपस्थित करते हुए कहा था
"सभी पदार्थ भावीभाव के अनुसार बनते हैं। किसी के करने-धरने से कुछ नहीं होता।" इसके उत्तर में कुण्डकौलिक ने कहा____ 'यदि सभी भाव नियति से ही बनते हैं और पुरुषार्थ से कुछ भी नहीं होता, तो तुम्हें यह देव सम्बन्धी ऋद्धि कैसे प्राप्त हो गई? क्या बिना पुरुषार्थ के ही मिल गई?' । .. - "हाँ, भवितव्यता से ही मिली है" - देव ने अपने पक्ष का निर्वाह करते हुए कहा।
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