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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ **
#########################################******* वह पकाओ और अपने परिवार को दे दो। यह मदिरा पिओ। ये तुम्हारे सेवक, सेविकाएं, दास, भृत्य, भागीदार, शिष्य, सन्देशवाहक और कार्य करने वाले किसलिए हैं ? ये आलसी होकर बैठे रहते हैं। तुम इनसे काम क्यों नहीं लेते? तुम अपनी पत्नी से भी काम लो। वह खा-पीकर यों ही पड़ी रहती है।
ये गहन वन और मूंज-कांस आदि से भरे हुए खेतों और बिना जोती भूमि की झाड़ी को आग से जलाकर साफ करो, वृक्षों को कटवा दो, इन वृक्षों की लकड़ी से अनेक प्रकार के पात्र, यंत्र, वाहन
और आसनादि साधन बन जायेंगे। गन्ने को काटो और पैर कर रस निकालो, तिलों को पीलो। घर बनाने के लिए ईंटें पकाओ, खेतों की जुताई करो और नौकरों से भी करवाओ। वन में बहुत लम्बीचौड़ी भूमि खाली पड़ी है। उस पर गांव बसाओ। वहाँ नगर बसा दो। उस स्थान पर शीघ्र ही खान खुदवाओ और खेड़-कर्बट बसाओ।
इन फूलों, फलों और कन्दमूल का समय परिपक्व हो चुका है, अब इन्हें तुड़वा-निकलवाकर परिवार के लिए संग्रह करो। शालि, ब्रीहि, जौ आदि धान्य परिपक्व हो गया है। अब इसे काट लो, फिर मसल और उफन कर साफ कर लो तथा अपने कोठों और वखारों में भर दो।
विवेचन - इस सूत्र में पर-पीड़क, परोपघातक उपदेश-आदेश देने वालों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार के आदेश-उपदेश स्वार्थ से भी होते हैं और बिना स्वार्थ के-वाचालता, दाक्षिण्यता, पाप-प्रियता, लोकैषणा, गतानुगतिकता और अज्ञानतादि अनेक कारणों से होते हैं।
स्वार्थवश दास-दासी अथवा परिजनों से आजीविकादि के लिए कार्य करवाना, भरण-पोषणादि के लिए आरम्भ करने का आदेश देना, अपने दुधारु एवं वाहनादि के पशुओं को आवश्यकतानुसार अनुशासन में रखने के लिए बांधने आदि की अनुज्ञा देना-अर्थ-दण्ड है। पाप का सेवन होते हुए भी सीमित मात्रा में-आवश्यतानुसार हो, तो वह अर्थ-दण्ड है। किन्तु अनावश्यक पर-पीड़क प्रेरणा करना, उपदेश-आदेश देना-अनर्थ दण्ड है।
बहुत-से लोग बिना प्रयोजन के ही अपने-आप दूसरों को परामर्श अथवा आज्ञा देकर पापकर्म . करने की प्रेरणा देते हैं। कई अपनी दाक्षिण्यता प्रकट करने के लिए ऐसे परामर्श देकर उनके हितैषी
बनने का दिखावा करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि मेरी प्रेरणा, मेरे आदेश, अन्य जीवों के लिए कितने दुःखदायक एवं विनाशक होंगे? मैं व्यर्थ ही पापकारी उपदेश-आदेश देकर अन्य जीवों के लिए दुःख, संताप, पीड़ा और मृत्यु का कारण बनूं? पाप-रुचि के कारण वे ऐसे पर-पीड़क उपदेश-आदेश देते रहते हैं। ऐसे लोग एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को प्रसन्न रखने के लिए सैकड़ों हजारों यावत् अनन्त जीवों के घातक बन जाते हैं।
देशविरत श्रावक अनर्थ-दण्ड से बचता है और अर्थ-दण्ड भी कम करता है, सर्वविरत श्रमण तो अर्थ और अनर्थ सभी प्रकार के दण्ड-पाप एवं पाप-युक्त वचन से बचता है। जिनकी दृष्टि विशुद्ध नहीं, जो अज्ञान-ग्रस्त हैं, वे वचन-विवेक से रहित हैं। .
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