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सिक्खों के गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों को भींत में चुनवा दिया था। कई मुसलमान राजाओं- नवाबों और बादशाहों के यहां बन्दी मनुष्य को सिंह के पिंजरे में बन्द कर सिंह के द्वारा मरवाते थे। सांप से डसवाते और हाथी के पांव से बांधकर घसीटवा कर मरवाते थे । तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के क्रूरता पूर्ण कृत्य इस मनुष्य लोक में भी होते हैं, तब नारकों के साथ हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इसमें उपादान कारण तो उन नारक जीवों का अपना पापकर्म ही है। उनका किया हुआ पाप-कर्म अंब फल दे रहा है। परमाधामी देव हैं - निमित्त कारण। यदि ये जीव पाप कर्म का उपार्जन नहीं करते, दो उन्हें नरक में जाने की और परमाधामी का सम्पर्क होने की आवश्यकता ही नहीं रहती ।
प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १
महापापी जीवों को इस प्रकार का दारुण दुःख होता है। पाप कर्म से उत्पन्न भार - ऋण को भुगत कर आत्मा हल्की बनती है।
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कंदुमहाकुंभीए - कन्दु- एक प्रकार का कडाव जैसा चौड़े मुख का पात्र । महाकुंभी घड़े जैसे संकड़े मुंह वाला पात्र । कुंभी-संकड़े मुख वाला नारक जीवों के उत्पत्ति का स्थान भी होता है। नारकों की उत्पत्ति कुंभियों में होती है।
आएसपवंचणाणि - महावेदना, घोर उष्णता, अत्यन्त घबराहट और तीव्रतम प्यास से अत्यन्त दुःखी हुआ नारक जीव पानी पीपा चाहता है। उसे परमाधामी देव जलाशय का भ्रम बतलाकर दुर्गम स्थान पर भेजते हैं। वास्तव में वहाँ जलाशय नहीं होता, एकमात्र भ्रम ही होता है। इस प्रकार उसे झूठे आदेश देकर भटकाया जाता है और अत्यधिक दुःखी किया जाता है।
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विघुट्टपणिज्जणाणि - नारक जीवों को अपने पापकर्म का निष्ठुर वचनों से स्मरण कराकर उसे फलभोग के लिए वध्यभूमि की ओर ले जाना । जैसे- 'तुझे मांस भक्षण बहुत प्रिय था। तू अत्यन्त क्रूर और निरंकुश होकर जीवों का वध करता था । तुझे मदिरा बड़ी प्रिय लगती थी' इत्यादि रूप पापकर्म का स्मरण कराया जाता है ।
पुव्वकम्मकयसंचयोवतत्ता णिरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता गाढदुक्खं महब्भयं कक्कसं असायं सारीरं माणसं य तिव्वं दुविहं वेएंति वेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिओवम-सागरोवमाणि कलुणं पालेंति ते अहाउयं जमकाइयतासिया य सद्दं करेंति भीया ।
शब्दार्थ - पुव्वकम्मकयसंचयोवतत्ता - पूर्वभव में किए हुए कर्मों के संचय से संतप्त हुए, णिरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता - - नरक की महान् अग्नि से जलते हुए, पावकम्मकारी- पापकर्म करने वाले, गाढदुक्खं - उत्कृष्ट दुःख, महब्भयं - महान् भय वाली, कक्कसं- कर्कश - अत्यन्त कठोर, असायंअसातावेदनीय कर्म से उत्पन्न, तिव्वं तीव्र, सारीरं शारीरिक, माणसं मानसिक, दुविहं दो प्रकार की, वेयणं - वेदना, वेति वेदतें-भोगते हैं, य और बहुणि बहुत, पलिओवमसागरोवमाणि - पल्योपम और सागरोपम तक, अहाउयं यथायु- अपनी आयु के अनुसार, कलुणं करुण अवस्था
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