________________
भूषावाद नामकं दूसरा अधर्म द्वार जंबू!* बिइयं अलियवयणं लहुसग-लहुचवल-भणियं भयंकर दुहकर अयसकरं वेरकरगं अरइ-रइ-रागदोस-मणसंकिलेस-वियरणं अलिय-णियडिसाइजोयबहुलं णीयजणणिसेवियं णिस्संसं अप्पच्चयकारगं परम-साहुगरहणिजं परपीलाकारगं परमकिण्हलेस्ससहियं दुग्गइविणिवाय-विवड्डणं भवपुणब्भवकरं चिरपरिचियमणगयं दरंतं कित्तियं बिइयं अहम्मदारं।
शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, बिइयं - दूसरा, अलियवयणं - अलीक-मिथ्या वचन, लहुसगलहुचवल - गुण एवं गौरव से अत्यन्त हीन और अति चपल, भणियं - भाषित, भयंकरं - डरावना, दुहकरंदुःख उत्पन्न करने वाला, अयसकरं - अपयशकारी - निंदित, वेरकरगं - वैर-शत्रुता उत्पन्न करने वाला, अरइरइरागदोसमणसंकिलेसवियरणं - रति, अरति, राग, द्वेष और मन में क्लेश बढ़ाने-फैलाने वाला, अलीय - अलीक-शुभ फल से रहित-निष्फल, णियडि - सत्य के लिए ढक्कन-दबाने वाला अथवा एक झूठ को दूसरे झूठ से दबाने वाला आच्छादन, साइजोयबहुलं - अविश्वास का बहुत बड़ा स्थान, णीयजणणिसेवियं - नीच जनों द्वारा सेवित, णिस्संसं - निन्दनीय अथवा क्रूर, अप्पचवकारगंअप्रतीति कारक-विश्वास-विनाशक, परमसाहुगरहणिजं - उत्तम साधुओं द्वारा निन्द्रित गीलाकारगंदूसरों के लिए पीड़ा-दुःखकारक, परमकिण्हलेस्ससहियं - उत्कृष्ट कृष्ण-लेश्या युक्त, दुग्गइविणिवायविवडणं - दुर्गतिगमन में वृद्धि करने वाला-बार-बार दुर्गति में ले जाने वाला, भवपुणब्भवकरं - बार-बार पुनर्भव कराने वाला, चिरपरिचयमणुगयं - लम्बे काल से परिचित और लगातारं साथ रहने वाला, दुरंतं - जिसका फल बड़ी कठिनाई से पूरा हो या जो परिणाम में दारुण हो, कित्तियं- कहा है, बिइयं - दूसरा, अहम्मदारं - अधर्म द्वार।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज श्री जम्बू स्वामी जी से कहते हैं कि हे जम्बू! दूसरा अधर्मद्वार मृषावाद है। जिन जीवों में गुणों की हीनता है, जिनमें गौरवशाली गुण नहीं है और जो चंचल हैं, वे मिथ्या-भाषण करते हैं। मृषावाद बड़ा भयानक अधर्म है। दुःखों का सर्जक है। अपयशकारी है। इस पाप से वैर-विरोध बढ़ता है। रति-आसक्ति, अरति-अरुचि, राग-द्वेष और संक्लेश की वृद्धि होती है। मृषावाद का शुभ फल नहीं होता। मृषावाद सत्य को ढकने वाला है। एक झूठ को ढकने के लिए दूसरा झूठ उत्पन्न होता है। असत्यवाद नीच लोगों द्वारा सेवित है। असत्य भाषण करने वाला की प्रतीति नहीं रहती। मृषावाद रूपी अधर्म, उत्तम साधु पुरुषों द्वारा निन्दनीय है। झूठ, दूसरे जीवों के लिए पीड़ाकारी होता है। झूठ के मूल में बहुत काली लेश्या रहती है। झूठ का पाप दुर्गतिगमन में वृद्धि करता
* "इह खलु जंबू" - पाठ भी कुछ प्रतियों में है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org