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नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दुःख
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भावार्थ - शिष्य प्रश्न करता है कि नारक जीवों को किस प्रकार की वेदना होती है ? गुरुदेव नारकीय दुःखों का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि उन नारक जीवों को कंदु और महाकुंभी में डालकर पकाया एवं उबाला जाता है। तवे पर रोटी के समान सेंकते हैं और पूरी की तरह तलते हैं। भाड़ में डालकर चने की तरह भूनते हैं। लोहे की कड़ाही में डालकर इक्षुरस की तरह औटाया जाता है। देवी-देवता के आगे नारियल फोड़ने के समान टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। लोहे के तीक्ष्ण शूल जैसे सामली-वृक्ष के कांटों पर घसीटा जाता है। कुल्हाड़ी से लकड़ी फाड़ने और करवत से चीरने के समान नैरयिक को फाड़ा और चीरा जाता है। हाथ-पाँव बांधकर लुढ़का दिया जाता है। सैकड़ों लाठियों से पीटा जाता है। गले में फन्दा डालकर वृक्ष पर लटका दिया जाता है। शरीर में तीक्ष्ण शूल भोंककर छेद कर दिये जाते हैं। असत्य आदेश देकर धोखा दिया जाता है। उनकी निन्दा एवं भर्त्सना की जाती है । अपमानित किया जाता है। उनके पापों की घोषणा के साथ वध्यभूमि पर जाते हैं और छेदभेदादि सैकड़ों प्रकार के दुःख दिये जाते हैं। इस प्रकार नारक जीवों को महान् दुःख भोगना पड़ता है।
विवेचन - इस सूत्र में नारक जीवों को नरकावास में परमाधामी ( महान् अधर्मी) देवों द्वारा प्राप्त भयंकरतम एवं रोमांचकारी दुःखों का वर्णन किया गया है। परमाधामी देव, भवनपति जाति के देवों में हैं। नारक जीवों को दुःख देने के लिए किसी परम शक्ति ने इनकी नियुक्ति नहीं की और नारकों को दुःख देने का इनका आवश्यक कर्त्तव्य भी नहीं है। किन्तु ये स्वभाव से ही इस प्रकार की रुचि वाले हैं। जिस प्रकार कई निर्दयी मनुष्य खरगोश, हिरन, शृगाल आदि पर शिकारी कुत्ते छोड़ कर, उन्हें मरवा कर प्रसन्न होते हैं और इसे वे अपना मनोरंजन मानते हैं, उसी प्रकार परमाधामी देव भी नैरयिक जीवों को अनेक प्रकार के दुःख देकर, उनका रोना, क्रन्दन करना, चिल्लाना, तड़पना देखकर प्रसन्न होते हैं । यह उनका मनोरंजन है ।
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कुछ अविश्वासी लोग नारकों को होने वाली परमाधामी कृत वेदना को असंभव एवं काल्पनिक मानते हैं । किन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है । इस प्रकार के कुछ नमूने मनुष्यलोक में भी मिलते हैं । मांस-भक्षी लोग खौलतें हुए पानी में जीवित मुर्गी को डालकर तत्काल ढक्कन लगा देते हैं। वे सोचते हैं कि इससे मुर्गी में रही हुई शक्ति सुरक्षित रह कर विकसित होती है। खुले में मारने से शक्ति कम हो जाती है। मांस को आग पर सेंकते हैं, भूनते हैं, पकाते हैं, काटते हैं, चीरते - फाड़ते हैं । भेड़-बकरों को काट कर उनका चमड़ा उधेड़ कर छिलते हैं। कई देवी के पुजारी उछल-कूद करते हुए अपने में देवी का प्रवेश बतलाते हैं, वे जीवित बकरे, भेड़ आदि को काटकर उसका रक्त पीते हैं। दक्षिण में भेड़ के बच्चों को देवी के मंदिर के सामने एक तीक्ष्ण शूल के ऊपर पछाड़ कर उसमें पिरो देते हैं। किसी स्थान पर उन पशुओं के बच्चों के नरम पेट या गले में दाँत गढ़ाकर रक्तपान करते हैं। मनुष्य ऐसा निर्दयतापूर्वक दारुण दुःख पशुओं को देता है। पिछले महायुद्ध के बाद समाचार-पत्र में पढ़ने में आया था कि जर्मनी में कई बन्दियों को जीवित ही तेजाब से भरी हुई नांदों में उतार कर मार दिया था !
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