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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १
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तिर्यंच गति में होकर मनुष्य हुए हैं। पुण्य फल संचय करके देवगति में गये और वहाँ से आये हुए मनुष्यों का सम्बन्ध इस सूत्र से नहीं है।
नरक से निकलने वाले सभी जीव इस प्रकार की दुर्दशा वाले नहीं होते। कई जीव अपने वैसे पापकर्मों का फल वहीं भोगकर और मनुष्य-गति में आकर उत्तम स्थिति को प्राप्त होते हैं। कोई तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि विशिष्ट आत्माएं नरक से निकल कर मनुष्य गति में आती हैं और मनुष्य लोक में सभी के लिए आदर - पात्र बनती हैं।
उपरोक्त सूत्र में उन्हीं महापापियों का वर्णन है, जिनके जीवन में मार-काट, हिंसा, हत्या, क्रूरतादि पाप ही पाप हो और नरक के घोर दुःख भोगने पर भी पाप कर्मों का खजाना खाली नहीं हुआ हो। वे पापी जीव नरकायु पूरा करके शेष रहे हुए पाप कर्मों का फल यहाँ भोगते हैं। उनका यह दुःखमय मानव-भव, उन शेष रहे हुए पाप कर्मों का परिणाम है। इसी से वे शारीरिक, मानसिक, वाचिक हीनता, अभावजन्य पीड़ा और रोग-शोकादि दुर्दशा से युक्त दिखाई देते हैं। दरिद्रता भी पापकर्म का ही फल है। मनुष्यों में जो दुःख क्लेशादि हैं, ये सब पाप कर्मों का परिणाम है।
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इस सूत्र में पाप कर्म के फलस्वरूप व्याधि, रोग, दुर्बलता एवं शस्त्राघात से दुःख होना, सुख वंचित रहना और दरिद्र रहना बतलाया है। इस प्रकार की विषम दशा कर्म के फलस्वरूप ही प्राप्त होती है। जो लोग यह कहते हैं कि-रोगादि तथा दरिद्रतादि का सद्भाव कर्म के फलस्वरूप नहीं है, उन्हें इस सूत्र पर विचार करना चाहिए। वास्तव में अनुकूलता या प्रतिकूलता जीव के अपने कर्म के विपाक के अनुसार होती है।
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उपसंहार
एवं रगं तिरिक्ख - जोणिं कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणंताइं दुक्खाई पावकारी। एसो सो पाणवहस्स फलविवागो। इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भयो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुंबई ण य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो त्ति एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधेजो कहेसी य पाणवहस्स फलविवागं । एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुद्दो अणारिओ णिग्घिणों णिसंसो महब्भओ बीहणओ तासणओ अणज्जाओ उव्वेयणओ य णिरवयक्खो णिद्धम्मो णिप्पिवासो णिक्कलुणो णिरयवास-गमणणिधणो मोहम्हब्भयपवड्डओ मरणवेमणसो । पढमं अहम्मदारं सम्मत्तं त्ति बेमि ॥ १ ॥
शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, णरगं नरक, तिरिक्खजोणिं तिर्यंच योनि, कुमाणुसतं - कुमानुषत्व, हिंडमाणा - भ्रमण करते हुए, पावंति प्राप्त होते हैं, अणंताई - दुक्खाई - अनन्त दुःखों
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