Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम् ।
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जल में भिगोये जाते हैं तो वे भारी-वजनी हो जाते हैं-पापी होते हैं और जब सत्यादि गुणरूपी गर्मी में फैलाये जाते हैं तो सूखकर हलके-लघु व पुण्यशाली हो जाते हैं । अतएव गुणीजनों को अपना चित्त सतत् सम्यग्ज्ञानादि गुणों की गर्मी से लघु-निर्दोष बनाये रखना चाहिए ।। सत्यवादी को वचनसिद्धि हो जाती है । वह जिस विषय को अपनी वाणी का विषय बनाता है वह सर्व मान्य होता है । तथा जो मनुष्य तृष्णा, ईर्ष्या, क्रोध, लोभ, हर्ष, यशोलिप्सादि वश असत्यभाषण करता है वह उभय लोक भ्रष्ट होता है। दुर्गति से भीत मनुष्य को असत्यभाषण त्याग कर सुखी होना चाहिए ।।122 | आ.7 धर्म व नीति विरुद्ध भाषण त्याग से ही सत्यव्रत शोभित होता है । अचौर्याणुव्रत
धर्मानुकूल, अग्नि व पञ्चों एवं धर्म की साक्षीपूर्वक, विधि-विधान से परिणीत (विवाहिता) पत्नी के सिवाय अन्य स्त्रियों के सेवन का त्याग करना अर्थात् उन्हें माता वहिन व पुत्रीवत पवित्र दृष्टि से देखना ब्रह्मचर्याणुव्रत कहा जाता है । इस व्रत के पालन से विद्या, बुद्धि, सत्य, अहिंसा का पालन, रक्षण व वर्द्धन होता है । इसीलिए आध्यात्म्यविशारदों ने इसे ब्रह्मचर्य ब्रत कहा है ।
ब्रह्मचारी को कामोद्दीपक, अश्लील चित्र, उपन्यास, कथादि का प्रयोग नहीं करना चाहिए । काम व गृद्धि वर्द्धक रसों का सेवन नहीं करना चाहिए । कामोद्दीपक शास्त्रों को पढ़ना नहीं चाहिए । जिस प्रकार हव्य से धनञ्जय (होमाग्नि), नदियों से सागर, सन्तुष्ट नहीं होता, उसी प्रकार संसारी प्राणी भोगों के प्राचुर्य में रहते हुए भी तृप्त नहीं होता ।
अनन्तवीर्यधारी भी पुरुष कामासक्ति से प्रचुर स्त्री संभोगादि कर हीन शक्ति हो जाता है, नपुंसक हो जाता है। काम रूपी अग्नि मनुष्य की चित्तरूपी ईंधन में प्रदीप्त होकर उसके, ध्यान, त्याग, तपोनिष्ठादि की भावनाओं को ध्वस्तकर देती है। अत: काम वासना की तत्परता का त्याग कर न्याय प्राप्त भोगों का मध्यम रीति से अर्थात् धर्म की छाया में रहकर सेवन करना चाहिए । शारीरिक दाह की शान्ति हेतु व खोटे ध्यान की निवृत्ति के उद्देश्य मात्र से सेवन करना चाहिए।
परस्त्री सेवन की लालसा होना, कामसेवन के अङ्गो से बहिर अंगो से सेवन करना, दूसरों का विवाह करनाकराना, कामसेवन की तीव्र लालसा रखना आदि क्रियाएँ ब्रह्मवत का नाश करती हैं ।
ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ऐश्वर्य, उदारता, धीरता, वीरता, सौन्दर्य, रूप-लावण्य आदि विशिष्ट गुणों की प्राप्ति होती है । अत: इस व्रत को निरतिचार पालना चाहिए । परिग्रहपरिमाणाणु व्रत
बाह्याभ्यन्तर पर वस्तुओं में "यह मेरा है" इस मान्यता या मूर्छा का नाम परिग्रह है । "मू परिग्रहः'' यह श्री उमास्वामी जी का वचन है । इस चित्तवृत्ति का संकोच या संवरण करना परिग्रह परमाणु व्रत है। क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र, भाण्ड, सोना चाँदी ये 10 वाह्य और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुंवेद नपुंसक वेद ये नवकषाय, अनन्तानुबन्धी आदि क्रोध, मान, माया, लोभ ये 4 कषाय तथा मिथ्यात्व ये 14 अन्तरङ्ग परिग्रह इस प्रकार 24 प्रकार के परिग्रहों की सीमा कर शेष में भी परिहार की भावना करते हुए सन्तुष्ट होना परिग्रह परिमाण व्रत कहलाता है । कहा है "सुख पावे सन्तोषी प्राणी" जहाँ सन्तोष है वहीं सुख है । तृष्णा दुःख का बीज है । धन लोलुपी तृष्णा वश अन्याय, अत्याचार कर धनार्जन करते हैं, वे नरक का मार्ग सरल बनाते हैं । धनाढ्य होकर भी जो