Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
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दयालु गृहस्थों को कूटना, पीसना, जल छानना, आदि पञ्चसूना कार्यों को देख-भाल कर सावधानी से करना चाहिए । दूध, घी, तैलादि तरल पदार्थों को कपड़े से छानकर प्रयोग में लाना चाहिए ।। 8 ॥ अहिंसा व्रत की रक्षार्थ और मूलगुण की विशुद्धि के लिए उभयलोक दुःखकर रात्रिभोजन का त्याग कर देना चाहिए ।। 9 ॥ व्रतियों को अनन्त जीवों की योनि स्वरूप, अचार, मुरब्बा, पत्तेवाले शाक-भाजी, घुणा अन्न, पुष्प, मूल, शाक, शाखादि का भी सेवन नहीं करना चाहिए । जिन पदार्थों में त्रस राशि प्रचुर मात्रा में व्याप्त हों उनका भक्षण नहीं करना चाहिए ।। 11 ॥ मिश्र, अमिश्र, भक्ष-अभक्ष कोई भी पदार्थ द्रव्य क्षेत्र, कालादि की मर्यादा के बाहर हो गया हो तो वह भी अभक्ष्य ही है । अहिंसाव्रत धारियों को उनका दूर से ही परिहार कर देना चाहिए ।। 12 ॥
जो व्यक्ति अधिक आरम्भ-परिग्रह संग्रही है, अन्य को ठगता है, धोखा देता है, विश्वासघात करता है, दुराचारी, कदाचारी है वह भला अहिंसक किस प्रकार हो सकता है? कदाऽपि नहीं हो सकता ।। 13 || शास्त्रकार पाप को अन्धकार
और पुण्य को प्रकाश कहते हैं । जिनका हृदय पुण्य रूप प्रकाशपुज्ज से व्याप्त है उनके समक्ष पाप रूप तमोराशि फटक ही नहीं सकती है ।। 14 ॥ अहिंसा धर्म के प्रभाव से प्राणी-दीर्घजीवी, भाग्यशाली, धनाढ्य, सुन्दर, यशस्वी, महिमाशाली होता है । संसार में जो कुछ भी उत्तमोत्तम, शुद्ध भोग पदार्थ हो सकते हैं, वे सब दयालु मानव के चरणों में स्वयं अनायास आ उपस्थित होते हैं ।। 15 | सत्याणुव्रत का स्वरूप
इस व्रत का धारी अनर्गल वार्तालाप, परदोषोद्भावन, असभ्य, निंद्य, गहित वचन नहीं बोलता । उच्चकुल प्रकाशक हित, मित, प्रिय वचन बोलता है । ॥ ऐसे वचन जिसके द्वारा धर्म, प्राणी का घात हो या किसी पर विपत्ति आ जाये इस प्रकार के वचन कभी नहीं बोलता ।। 2 ।। सौम्य प्रकृतिवाला, सदाचारी, हितैषी, प्रियवादी, परोपकारी और दयालु व्यक्ति ही सत्यवादी होना संभव है ।।3।।
मन्त्रभेद (दूसरों के निश्चित अभिप्राय को प्रकट करना), परनिन्दा, चुगली, झूठा दस्तावेज लिखना, असत् गवाही देना, इत्यादि कलह, विद्रोहवर्द्धक कार्यों को नहीं करता, न कराता है, न करने वालों को प्रोत्साहन ही देता है वही सत्यव्रत पालक होना संभव है ।।।
जिसवाणी से गुरुजन प्रमुदित होते हैं वह वाणी मिथ्या होने पर भी असत्य नहीं मानी जाती । इसका अभिप्राय है कि गुरुजन दूरदर्शी व तत्त्वज्ञ होते हैं वे द्रव्य, क्षेत्र, कालादि मर्यादानुसार ही शिष्यों को भाषण करने की अनुज्ञा देते हैं ।। 15॥
तुरीयं वर्जयेन्नित्यं लोक यात्रात्रये स्थिता ।
सा मिथ्यापि न गीर्मिथ्या या गुर्वादि प्रसादिनी ।। 15॥ सत्यवादी परनिन्दा व आत्मप्रशंसा न करे। पर के विद्यमान गुणों का लोप और स्वयं के अविद्यमान गुणों का उभावन करने की चेष्टा न करे ।। 6॥
विकथाओं का त्याग करना चाहिए असम्बद्ध प्रलाप नहीं करना चाहिए । पर का अहित करने से स्वयं अपना ही अहित होता है । संसार में प्राणियों के चित्त रूपी वस्त्र, दोष रूपी