Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
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वाले को दो चन्द्र दिखाई देते हैं तो यह दृष्टिभ्रम है न कि चन्द्रमा का दोष है ? चन्द्रमा का नहीं 14 ॥
सम्यग्दर्शन विहीन पुरुष का ज्ञान मात्र उसके मुख की खुजली को दूर करने वाला होता है । अर्थात् वादविवाद कर सकता है आत्म हित के लिए कारण नहीं हो सकता । इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान विहीन चारित्र भी विधवा के श्रृंगार के समान निरर्थक है ।।5।।
जो दूध एक बार दही बन जाता है, फिर दुध नहीं बनता उसी प्रकार जो आत्मा तत्त्वज्ञान से विशुद्ध हो चुकी है वह पुनः पापों से लिस नहीं होती 16 ॥ शरीर और आत्मा सर्वथा भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले हैं, शरीर अत्यन्त मलिन
और आत्मा अत्यन्त शुद्ध है । विवेकी भव्यों को इस प्रकार का नित्य चिन्तन करना चाहिए । ॥ (आ.8 पृ.399) जिसकी वाणी व्याकरण, साहित्य, इतिहास, अलंकारादि और आगम ज्ञान से विशुद्ध नहीं हुई है एवं जिसने नीति शास्त्रों को पढकर अपनी बुद्धि को परिष्कृत और विशुद्ध नहीं बनाया वह केवल दूसरों के सहारे रहकर पलेश उठाता है और अन्धे के समान है ।।8।। सम्यक् चारित्र का लक्षण
हिंसादि पाँच पापों से विरत होना सम्यक् चारित्र है । अणुव्रत और महावत के भेद से इन्हें पालन करना श्रावक और यतियों का चारित्र कहा है । श्रावकों का चारित्र दो प्रकार है - 1. मूलगुण और 2. उत्तर गुण । मूलगुण 8 होते हैं - मद्य (शराब) मधु (शहद) एवं मांस का त्याग तथा पाँच उदम्बर फलों का त्याग । समन्तभद्राचार्य ने तीन मकार त्याग और पाँच अणुव्रतों का पालन ये 8 मूलगुण कहे हैं । शास्त्रान्तरों में इनकी विशद् व्याख्या की है । यहाँ कुछ उद्धरण निम्न प्रकार हैं
__मद्यपायी के काम, क्रोधादि समस्त दोष उत्पन्न होते हैं । बुद्धिभ्रम हो जाता है । अज्ञान का पर्दा पड़ जाता है ।1 0 हिताहित का विवेक नष्ट हो जाता है । फलतः शराबी को संसार रूप अटवी में भटक कर नाना संकटों का शिकार होना पड़ता है ।। 2 || शराब पीने से यदुवंशी नष्ट हो गये । महुआ, गुड़ और पानी का मिश्रण शराब तैयार कर देता है, नशा उत्पन्न हो जाता है । पश्चात् पीने वाले को किंकर्तव्यविमूढ़ बना देती है । शराब की एक बूंद में इतने जीव हैं कि वे स्थूल रूप धारण कर विचरें तो सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर लें । मद्यपान मनुष्य की बुद्धि विकल कर देता है । अतः इसका सर्वथा त्याग करना उत्तम है ।
दो इन्द्रियादि प्राणियों के कलेवर से मांस की उत्पत्ति होती है। हिंसात्मक, घृणास्पद, रोगोत्पादक, महापापकारक, दुर्गतिदायक इस मांस को सज्जन पुरुष किस प्रकार भक्षण कर सकते हैं? कदाऽपि नहीं करते हैं ।
__ जिसका मांस मैं यहाँ खाता हूँ, वह जन्मान्तरों में मुझे भी अवश्य ही खायेगा ऐसा मां-स का अर्थ विद्वानों द्वारा प्रतिपादित किया है ।। 1॥
संसार में प्राणी अहिंसा से सुखी, समृद्ध, परिपुष्ट और समस्त भोगोपभोग की सामग्री से सम्पन्न देखे जाते हैं, उसी अहिंसा धर्म का त्याग मनीषीजन किस प्रकार कर सकते हैं? कल्पवक्ष से कौन देष के
जो व्यक्ति स्वल्प दुःख उठाकर अपने को सुख सम्पन्न देखना चाहते हैं तो उसका कर्तव्य है कि "जैसा विश्वास आदि अपने प्रति चाहता है और विश्वासघातादि करना नहीं चाहते वैसा हम भी अन्य के प्रति नहीं करे" । जो व्यक्ति अन्य के सुख भोग में बाधक न होकर पुण्यार्जित फल का भोग करते हैं वे उभयलोक में सुखी रहते हैं ।। 4 ॥ जिस