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नमुक्तिपंचक
सूत्रकृतांग नियुक्ति (सूनि १००, १०५) के अनुसार धर्म के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं
ਮੈਂ
नामधर्म
स्थापनाधर्म
द्रव्यधर्म
भावधर्म
सचित्तधर्म
अचित्तधर्म
मिश्रधर्म
गृहस्थधर्म
लौकिकधर्म
लोकोत्तरधर्म
गृहस्थधर्म
अन्यतीर्थिकधर्म
ज्ञानधर्म
दर्शनधर्म
चारित्रधर्म
भति
श्रुत
अवधि
मन:पर्यव
केवल
औपशमिक
सास्वादन
क्षायोपशमिक
वेदक
क्षायिक
सामायिक छेदोपस्थापनीय
परिहारविशुद्ध सूक्ष्मसंपराय यथाख्यात
अर्थ
सांसारिक प्राणी के लिए भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री अर्थ से ही संभव है। महाभारत में कृषि, वाणिज्य और गो-पालन को अर्थ कहा गया है। क्योंकि इनके मूल में अर्थ-प्राप्ति का लक्ष्य रहता है। आचार्य वात्स्यायन अर्थ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि विद्या, भूमि, सुवर्ण, पशु, बर्तन, उपकरण, मित्र एवं अन्य वस्तुओं को प्राप्त करना तथा उनकी वृद्धि करना अर्थ है। महाभारत में धर्म और काम को अर्थ का ही अंग माना है। कौटिलीय ने भी अर्थ को धर्म और काम का मूल माना है। समय के अनुसार अर्थ के विनिगय एवं उसके स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन काल में सिक्कों का अस्तित्व होते हुए भी वस्तुओं का विनिमय प्राय: वस्तुओं से होता था। आज वह रुपयों से होने लगा। नियुक्तिकार के समय अर्थ (सम्पत्ति) को छह रूपों में सुरक्षित रखा जाता था—धान्य, रत्न, स्थावर, द्विपद, चतुष्पद, कुम्य। धान्य-धान्य २४ प्रकार का होता है।" रत्न रत्न के भ. २४ प्रकार हैं। नियुक्तिकार ने चंदन, शंख, अगर, धर्म, दंत. केश के सौगंधिक
१. मभा शांतिपर्व १६७/११. १२।
३. मभ शांतिपर्व १६७/१४, २. कामसूत्र; १/२/८; विद्या-भूमि-हिरण्य-पशु-धान्य-भापडोपस्कर- कौटि. १/३/६/३ अर्थमूली हि धर्मकामादिति । मित्रादीनार्जनमर्जितस्य विवर्धनमः। ४ दशनि २२९, २३० निभा १०२९, १०३० ।
५. दशनि २३१. २३२, निभा १०३१।